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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार गहं त्यक्त्वा वनं गत्वा मुनीनां चरणान्तिके । ब्रह्मचारिखतोपेतः स चैकदशको भवेत् ॥२४३ तस्य भेदद्वयं प्राहुरेकवस्त्रधरः सुधीः । प्रथमोऽसौ द्वितीयस्त यती कोपीनमात्रभाक ॥२४४ यः कौपीनधरो रात्रि-प्रतिमायोगमुत्तमम् । करोति नियमेनोच्चैः सदाऽसौ धीरमानसः ॥२४५ लोचं पिच्छं च सन्धत्ते भुङ्क्तेऽसौ चोपविश्य वै । पाणिपात्रेण पूतात्मा ब्रह्मचारो स चोत्तमः २४६ कृतकारितं परित्यज्य श्रावकाणां गृहे सुधीः । उद्दण्डभिक्षया भुङ्क्ते चैकवारं स युक्तितः ॥२४७ त्रिकालयोगे नियमो वीरचर्या च सर्वथा। सिद्धान्ताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नास्ति तस्य वै ॥२४८ षडाद्यास्ते जघन्याः स्युः मध्यमाश्च ततस्त्रयः । उत्कृष्टौ द्वौ परौ प्रोक्तौ श्रावकेषु जिनागमे ॥२४९ श्रीमज्जैनमतं पूतं पवित्रीकृतभूतलम् । मत्वा सम्यक्त्वसंयुक्तो यो धर्मप्रतिपालकः ॥२५० स भव्यो भुवनाम्भोज-भास्करो जगदर्चितः । सम्भूत्वा केवलज्ञानी मुक्तिकान्तावरो भवेत् ।।२५१ इत्येवं जिनदेवशास्त्रनिपुणैः प्रोक्ता मुनीन्द्रः शुभैः सम्यक्त्वादिगुणान्विताः शुचितराश्चकादशस्थानिकाः । ये भव्याः प्रतिमाः सुरेन्द्रमहिताः शक्त्या भजन्त्युच्चकै स्ते दिव्याच्युतकल्पसौख्यनिलया भव्या भवन्त्युत्तमाः ॥२५२ इति धर्मोपदेशपीयूषवर्षनामश्रावकाचारे द्वादशवतैकादशप्रतिमाव्यावर्णनो नाम चतुर्थोऽधिकारः ॥४॥ विरत श्रावक है ।।२४२॥ जो घरको छोड़कर और वनमें जाकर मुनियोंके चरणोंके समीपमें ब्रह्मचारीके व्रतको धारण करता है, वह ग्यारहवां श्रावक है ।।२४३।। आचार्योंने उसके दो भेद कहे हैं—पहला एक वस्त्रधारी सुधी और दूसरा कोपीन मात्रका धारक यती ॥२४४॥ इनमें जो कोपीन मात्रका धारक है, वह उत्तम धीर मानस सदा हो रात्रि प्रतिमायोगको नियमसे भले प्रकार करता है ॥२४५।। यह केश लोंच करता है, पिच्छीको रखता है और बैठकर नियमसे पाणिपात्रसे खाता है। यह उत्तम पवित्रात्मा ब्रह्मचारी है ॥२४६।। (दूसरा भेदवाला भी) उत्तम सुधी कृत और कारित (एवं अनुमत) भोजनको छोड़कर श्रावकोंके घरमें उद्दण्ड भिक्षासे युक्ति पूर्वक एक बार ही भोजन करता है ।।२४७।। इसे त्रिकालयोगमें नियम, वीरचर्या, सिद्धान्त रहस्य (प्रायश्चित्त सूत्र) का अध्ययन और सूर्य प्रतिमाका सर्वथा अधिकार नहीं है ॥२४८।। उपर्युक्त' ग्यारह प्रकारके श्रावकोंमेंसे जिनागममें आदिके छह श्रावक जघन्य, तदनन्तर तीन श्रावक मध्यम और अन्तिम दो श्रावक उत्कृष्ट कहे गये हैं ॥२४९।। जो श्रावक श्रीमज्जैनमतको पवित्र एवं भूतलको पवित्र करनेवाला मानकर सम्यक्त्वसे संयुक्त होकर जैनधर्मका प्रतिपालन करता है, वह भव्य तीन भुवनके रूप कमलोंको विकसित करनेवाला सूर्य बनकर एवं जगत्पूज्य होकर केवलज्ञानी हो मुक्तिकान्ताको वरण करता है ॥२५०-२५१॥ इस प्रकार जिनदेव-भाषित शास्त्रोंमें निपूण उत्तम मुनीन्द्रोंने सम्यक्त्व आदि गुणोंसे संयुक्त, अतिपवित्र ग्यारह स्थानवाली श्रावक प्रतिमाएं कहीं हैं, जो भव्य पुरुष देवेन्द्रोंसे पूजित इन प्रतिमाओंको शक्तिके अनुसार उच्च प्रकार से धारण करते हैं, वे उत्तम भव्य दिव्य अच्युत स्वर्गके सौख्योंके भोक्ता होते हैं ।।२५२॥ इस प्रकार धर्मोपदेशपीयूषवषनामक श्रावकाचारमें श्रावकके बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाका वर्णन करनेवाला चौथा अधिकार समाप्त हुबाला Jain Education in rational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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