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________________ ४९५ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार इत्युच्चेजिनपुङ्गवं शुभतरं देवेन्द्रचन्द्राचितं ये भव्या भवसिन्धुतारणपरं सम्पूजयन्ति त्रिषा। ते भव्यास्त्रिदशादिसौख्यमतुलं सम्प्राप्य राज्याविकं पश्चासिद्धिसुखं विनाशविमुखं सम्प्रानुवन्ति क्रमात् ॥२२१ सम्यक्त्वद्रुमसिञ्चने शुभतरा कादम्बिनी बोधदा भव्यानां वरभारतीव नितरां दूती सतां सम्पदे। मुक्तिप्रोन्नतमन्दिरस्य सुखदा सोपानपङ्क्तिर्मुदा कुर्यात्सारसुखं समस्तजगतां पूजा जिनानां सदा ॥ गुणवतत्रयं चापि शिक्षावतचतुष्टयम् । श्रावकाणां बुधाः प्राहुः शीलसप्तकमित्यलम् ॥२२३ पञ्चाणुव्रत-शीलसप्तकमिति प्रोक्तानि च द्वादशश्राद्धानां मुनिसत्तमः शुभतराण्येवं व्रतानि ध्रुवम् । ये भव्याः प्रतिपालयन्ति नितरांते प्राप्य सत्सम्पदा देवेन्द्रादिसमुद्भवां शिवपदं पश्चाल्लभन्ते क्रमात् ।। तथा चैकादश प्रोक्ताः प्रतिमा. पूर्वसूरिभिः । श्रावकाणां जगत्सार-सम्पदा-सुखदाः सदा ॥२२५ श्राद्धो दर्शनिकः पूर्वो द्वितीयो व्रतिको मतः । सामायिकस्तृतीयः स्थाच्चतुर्थः प्रोषधवती ॥२२६ सचित्तविरतश्चापि रात्रिभुक्तिविजितः । सप्तमो ब्रह्मचारी च प्रारम्भरहितोऽष्टमः ॥२२७ परिग्रहग्रहैमुक्तः श्रावको नवमो मतः । दशमोऽनुमते दूरः परो नोद्दिष्टभुक्तिभाक् ॥२२८ तेषामेकादशस्थान-श्रावकाणां जिनोक्तिभिः । सङक्षेपाल्लक्षणं वक्ष्ये शृण्वन्तु सुधियो जनाः ॥२२९ द्यूते मांसं सुरा वेश्या पापद्धिः परदारता । स्तेयेन सह सप्तेति व्यसनानि त्यजेद बुधः ॥२३० एतैः सप्तमहादोषैर्मुक्तो मूलगुणाष्टकः । श्रीजिनेन्द्रपदाम्भोज-सेवनकमधुवतः ॥२३१ जो भव्य जीव भव-सागरसे पार उतारनेवाले, देवेन्द्र चन्द्रसे पूजित और अति पवित्र ऐसे श्रेष्ठ जिनदेवकी त्रियोगसे पूजा करते हैं, वे भव्य देवेन्द्रादिके सुखोंको, अतुल राज्यादिकको पा करके तत्पश्चात् क्रमसे अविनाशी सिद्धि (मुक्ति) के सुखको प्राप्त करते हैं ।।२२।। जिनदेवोंकी पूजा सम्यक्त्वरूपी वृक्षको सींचनेके लिए उत्तम मेघधारा है, भव्योंको श्रेष्ठ सरस्वतीके समान बोध देनेवाली है, सज्जनोंको सम्पत्ति देनेके लिए अति चतुर दूतीके समान है, मुक्तिरूपी अति उच्च भवनकी सुखदायिनी सोपान पंक्ति है। इस प्रकार यह जिनपूजा समस्त जगत्को सदा सार सुख करे ॥२२२॥ ज्ञानियोंने तीन गणव्रत और चार शिक्षाव्रतको श्रावकोंके सात शीलव्रत कहा है ॥२२३॥ इस प्रकार पाँच अणुव्रत और सात शील, ये अति शुभ बारह व्रत निश्चयसे श्रेष्ठ-मुनियोंने श्रद्धाशील श्रावकोंके कहे हैं। जो भव्यजीव इनको पालते हैं, वे निश्चयसे देवेन्द्रादिके होनेवाली उत्तम सम्पदा प्राप्त करके पीछे अनुक्रमसे शिवपदको पाते हैं ॥२२४|| तथा पूर्वाचार्योंने जगत्की सारभूत-सुख-सम्पदाको सदा देनेवाली श्रावकोंको ग्यारह प्रतिमाएँ कही हैं ।।२२५।। उनके धारक श्रावक इस प्रकार हैं-पहला दार्शनिक श्रावक, दूसरा वतिक, तीसरा सामायिक, चौथा प्रोषधवती, पांचवा सचित्तविरत, छठा रात्रिभुक्ति विरहित, सातवां ब्रह्मचारी, आठवां आरम्भरहित, नवा परिग्रहविरत, दसवाँ अनुमतिविरत, और ग्यारहवां अनुद्दिष्टभोजी ॥२२६-२२८॥ इन उपर्युक्त ग्यारह स्थानवाले श्रावकोंके लक्षण जिनवाणीके अनुसार संक्षेपसे कहता हूँ, सो हे सुधी जनो, आप लोग सुनें ॥२२९।। द्यूत, मांस, मदिरा, वेश्या, आखेट, परस्त्री और चोरी इन सात व्यसनोंको ज्ञानी पुरुष छोड़े ॥२३०॥ नो इन सातों महादोषोंसे विमुक्त है, आठ मूल गुणोंका धारक है, श्री जिनेन्द्रदेवके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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