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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार ४७७ यत्सन्तः सर्वथा नित्यं परस्त्रीषु पराङ्मुखाः । स्वनारीष्वेव सन्तुष्टास्तच्चतुर्थमणुवतम् ॥४० 'हाव-भाव-विलासाढ्या स्वयं वा गृहमागता । परस्त्री सर्वथा त्याज्या सद्भिः सच्छीलधारिभिः ॥४१ ते धीराः पण्डिताः शूरास्ते भव्या गुणसागराः । मनोवाक्कायतो नित्यं ये परस्त्रीपराङ्मुखाः ॥४२ परस्त्रीरूपमालोक्य सन्तो यान्ति नताननाः । मेघधाराहता वृद्धा यान्ति वा वृषभा द्रुतम् ।।४३ न्यायोपाजितभोगाश्च सतां चित्ते न सर्वथा । प्रीतये सम्भवत्येव कथं ते न्यायजिताः ॥४४ परपाणिग्रहाऽऽक्षेपानङ्गक्रीडा विटलकम् । भूरिभोगतृषा चापीत्वरिकागमनं तथा ॥४५ पञ्चैतेऽपि व्यतीचाराश्चतुर्थाणुव्रते मताः । सन्तः स्वव्रतसिद्धयर्थ सन्त्यज्यन्त्येव तानपि ॥४६ एवं येऽत्र महाभव्या मनोवाक्काययोगतः । परस्त्रियं त्यजन्त्युच्चैस्ते लभन्ते परं पदम् ॥४७ परस्त्रीलम्पटो मूढः पापं वैरं विधाय च । प्रायेण दुर्गतिं याति तस्मात्तां दूरतस्त्यजेत् ॥४८ कामदेवाऽऽकृति चापि नरं वीक्ष्य परं तथा । भ्राता मेऽयं पिता चेति चिन्तनीयं कुलस्त्रिया ॥४९ विशदचन्द्रकरद्युतिनिर्मला भवति कोतिरनुत्तरसम्पदा । जिनपतेर्वचनामृतपायिनां विमलशीलवतामिह देहिनाम् ॥५० धन-धान्य-सुवर्णादि-चोरकपूरकादिषु । चतुःपदादिके सङ्ख्या पञ्चमं तदणुव्रतम् ॥५१ सङ्ख्यां विना न सन्तोषो जायते भुवि देहिनाम् । यथा भूरिनदीतोयैर्नेव तृप्तिः सरित्पतेः ॥५२ सुखके निधान स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥३९॥ जो सन्त पुरुष सर्व प्रकारसे नित्य ही परस्त्रियोंमें पराङ्मुख रहते हैं और अपनी ही स्त्रियोंमें सन्तुष्ट रहते हैं, उनके यह स्वदारसन्तोष नामका चौथा अणुव्रत जानना चाहिए ॥४०॥ उत्तम शीलके धारक सन्त जनोंको हाव-भाव विलाससे युक्त वेश्याका, तथा स्वयं ही अपने घरमें आयी हुई परस्त्रीका सर्वथा त्याग करना चाहिए ।।४१।। जो मन-वचन-कायसे नित्य ही परस्त्रीसे पराङ्मुख रहते हैं, वे ही भव्य पुरुष धीर, पण्डित, शूरवीर और गुणोंके सागर हैं ॥४२॥ परस्त्रीके रूपको देखकर सन्तजन नीचा मुख करके चले जाते हैं। जैसे कि मेघकी जलधारासे पीड़ित बूढ़े बैल शीघ्र भाग जाते हैं ॥४३॥ सर्व प्रकारसे न्यायोपार्जित भोग भी सन्त जनोंके चित्तमें प्रीतिके लिए नहीं होते हैं, तो न्याय-वर्जित भोग कैसे प्रीतिके लिए हो सकते हैं ।।४४।। परविवाहकरण, अनंगक्रीड़ा, विटत्व, अतिभोगतृषा और इत्वरिकागमन, ये पाँच चतुर्थ अणुव्रतमें अतीचार माने गये हैं। सन्त जन अपने व्रतकी सिद्धिके लिए इनको भी छोड़ते ही हैं ॥४५-४६।। इस प्रकार जो महाभव्य इस लोकमें मन-वचनकायके योगसे परस्त्रीका सर्वथा त्याग करते हैं, वे परम पदको प्राप्त करते हैं ॥४७॥ परस्त्री लम्पट मुढ मानव पाप और वैरका उपार्जन करके प्रायः दुर्गतिको जाता है, इसलिए परस्त्रीको दूरसे ही तजे ॥४८॥ इसी प्रकार कामदेव जैसी आकृतिवाले सुन्दर परपुरुषको भी देखकर 'यह मेरा भाई है, अथवा पिता है' ऐसा चिन्तवन करना चाहिए ॥४९॥ जिनपतिके वचनामृत-पायी निर्मलशीलवाले जीवोंको इस लोकमें अनुपम सम्पदा और निर्मलचन्द्रकी किरणोंकी कान्तिके समान विमल कीत्ति प्राप्त होती है ॥५०॥ धन, धान्य, सुवर्णादिमें तथा वस्त्र, कपूर आदि अन्य वस्तुओंमें और चतुष्पद (गाय-बैल आदि) द्विपद (दासी-दास) आदिमें संख्या करना (उनका परिमाण करना) यह पांचवां परिग्रह परिमाण अणुव्रत है ॥५१॥ परिग्रहकी संख्यादिके विना संसारमें १. हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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