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________________ श्रावकाचार-संग्रह निर्मूच्छं वस्त्रमानं यः स्वीकृत्य निखिलं त्यजेत् । बाह्यं परिग्रहं स स्याद्विरक्तस्तु परिग्रहात् ॥७३ पृष्टोऽपृष्टोऽपि नो दत्तेऽनुमति पापहेतुके। ऐहिकाखिलकार्ये योऽनुमतिविरतोऽस्तु सः ॥७४ गेहादिव्याश्रमं त्यक्त्वा गुर्वन्ते व्रतमाश्रितः । भैक्ष्याशीर्यस्तपस्तप्येदुद्दिष्टविरतो हि सः ।।७५ उद्दिष्टविरतो द्वधा स्यादाद्यो वस्त्रखण्डभाक् । स मूर्ध्वजानां वपनं कर्त्तनं चैव कारयेत् ॥७६ गच्छेन्नाकारितो भोक्तुं कुर्याद्भक्ष्यं यथाशनम् । पाणिपात्रेऽन्यपात्रे वा भजेद्भुक्ति निविटवान् ॥७७ भुक्त्वा प्रक्षाल्य पानं च गत्वा गुरुसन्निधिम् । चतुर्धान्नपरित्यागं कृत्वाऽऽलोचनमाश्रयेत् ॥७८ द्वितीयोऽपि भवेदेवं स तु कौपीनमात्रवान् । कुर्याल्लोचं धरेत्पिच्छं पाणिपात्रेऽशनं भजेत् ॥७९ वीरचर्यादिनच्छाया सिद्धान्ततिह्यसंश्रुतौ । कालिके च योगेऽस्य विद्यते नाधिकारिता ॥८० पूर्व पूर्व व्रतं रक्षन्नुत्तरोत्तरमाश्रयेत् । य एवं स भवेदेव देववन्द्यपदद्वयः ॥८१ विनयः स्याद्वैयावृत्त्यं कायक्लेशस्तथार्चना । कर्तव्या देशविरतैर्यथाशक्तिर्यथागमम् ॥८२ दर्शनज्ञानचारिौस्तपसाऽप्युपचारतः। विनयः पञ्चधा सः स्यात्समस्तगुणभूषणः ॥८३ निःशङ्कितादयोऽपूर्वा ये गुणा वर्णिता मया । यत्तेषां पालनं स स्याद्विनयो दर्शनात्मकः ॥८४ ज्ञान-ज्ञानोपकरण-ज्ञानवत्सु सुभक्तितः । यत्पर्युपासनं शश्वत्स ज्ञानविनयो भवेत् ॥८५ से सदाके लिये सहर्ष विराम लेता है, वह आठवीं प्रतिमाका धारक आरम्भ विरत श्रावक है ॥७२॥ जो एकमात्र वस्त्रको रखकर शेष सर्व प्रकारके बाह्य परिग्रहका त्याग करता है, वह नवी प्रतिमाका धारक परिग्रह विरत श्रावक है ॥७३॥ जो घरमें रहते हुए भी पापके कारणभूत इस लोक-सम्बन्धी समस्त कार्यों में पूछनेपर, या नहीं पूछनेपर भी अनुमतिको नहीं देता है, वह दशवी प्रतिमाका धारक अनुमतिविरत श्रावक है ।।७४। अब ग्यारहवीं उद्दिष्टविरत प्रतिमाका वर्णन करते हैं-घर आदिके निवासको छोड़कर और गुरुके समीप जाकर व्रतोंको लेकर जो भिक्षावृत्तिसे भोजन करता हआ तपको तपता है, वह उद्दिष्टविरत श्रावक है |७५॥ यह उद्दिष्टविरत श्रावक दो प्रकारका होता है, उनमें जो प्रथम उद्दिष्टविरत है, वह खण्डवस्त्र रखता है, तथा अपने शिर-दाढ़ीके केशोंका मुण्डन या कर्तन कराता है ॥७६॥ वह भोजनके लिये बुलाया हुआ नहीं जाता है किन्तु भोजनके समय गोचरीके लिये स्वयं ही परिभ्रमण करता है और यथायोग्य भिक्षा प्राप्त होनेपर बैठकर पाणिपात्रमें अथवा अन्य पात्रमें भोजन करता है ।।७७|| भोजन करके पात्रका प्रक्षालन कर और गुरुके समीप जाकर, चार प्रकारके आहारका त्याग कर अपनी आलोचना करता है ॥७८॥ द्वितीय उद्दिष्टविरत भी इसी प्रकारका होता है, किन्तु वह लंगोटी मात्र रखता है, केशोंका लुंचन करता है, पीछीको धारण करता है और पाणिपात्रमें भोजन करता है ॥७९॥ ग्यारहवीं प्रतिमाधारीको वीरचर्या, दिनका आतापनयोग, सिद्धान्त रहस्य (प्रायश्चित्त शास्त्र) का अध्ययन और त्रैकालिक योग धारण करनेका अधिकार नहीं है ॥८०|| इस प्रकार जो पूर्व प्रतिमाके व्रतोंकी रक्षा करते हुए उत्तरोत्तर व्रतका आश्रय लेता है, वह देवोंके द्वारा वन्दनीय चरण युगलवाला होता है ॥८१।। देशसंयमके धारक श्रावकोंको यथाशक्ति आगमके अनुसार विनय, वैयावृत्त्य, कायक्लेश और पूजन करना चाहिए ।।८२।। अब प्रथम विनयका वर्णन करते हैं—दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचारकी अपेक्षा पनय पांच प्रकारका है। यह विनयगुण समस्त गुणोंका आभूषण है ॥८३।। सम्यग्दर्शनके निःशंकित आदि जो अपूर्व गुण मैंने पहले वर्णन किये हैं, उनका पालन करना सो दर्शन विनय है ।।८४|| ज्ञानकी, ज्ञान-प्राप्तिके उपकरणोंकी और ज्ञानवानोंकी उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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