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________________ ४५२ श्रावकाचार-संग्रह यथोनमूबरे क्षेत्रे फलेबीजं न किश्चन । कुपात्रापात्रनिक्षिप्तं तद्वद्दानं न किञ्चन ॥४८ कारुण्यादथवौचित्यादन्येभ्योऽपि स्वशक्तितः । वृद्धदीनादिकष्टेभ्यो दानं देयं कृपालुना ॥४९ रोगोपसर्गे दुभिक्षे वार्धक्ये वाऽप्रतिक्रिये । धर्मार्थ यस्तनोस्त्यागः सोक्ता सल्लेषणा बुधैः ॥५० त्यक्त्वा परिग्रहं स्नेहं वैरं सङ्गं प्रयत्नतः । वात्सल्यैर्वचनैः क्षान्त्वा क्षमयेत्स्व-परं जनम् ॥५१ दोषानालोच्य निव्र्याजं मनोवाक्कायसञ्चितान् । सोत्साहश्च श्रुतश्रुत्या भावयेच्च स्वमञ्जसा ॥५२ आहारं स्निग्धपानं च खरपानं यथाक्रमम् । त्यक्त्वोपवासमाश्रित्य ध्यायनह त्यजेत्तनुम् ।।५३ व्रतानि द्वादशैतानि व्यतीचाराणि पालयन् । भवेत्स्वर्मोक्षलक्ष्मीनामेकान्तेन समाश्रयः ॥५४ देवदेवोपदेशः स्यात्समयोऽत्र समुद्भवम् । नियुक्तं वापि यत्कर्म तत्सामायिकमुच्यते ॥५५ वैयग्यं त्रिविधं त्यक्त्वा त्यक्त्वाऽऽरम्भपरिग्रहम् । स्नानादिना विशुद्धोऽङ्गशुद्धया सामायिकं भजेत् ॥५६ गेहे जिनालयेऽन्यत्र प्रदेशे वाऽनघे शुचौ । उपविष्टः स्थितो वापि योग्यकालसमाश्रितम् ॥५७ द्विनतिदिशावर्ताश्चतुःशीर्षनतान्वितः । भक्तिद्वयं चतुष्कं वा समुच्चार्य निराकुलः ॥५८ कायोत्सर्गस्थितो भूत्वा ध्यायेत्पञ्चपदों हृदि । गुरुन् पञ्चाथवा सिद्धस्वरूपं.चिन्तयेत्सुधीः ॥५९ अनेक प्रकारके महान् फलोंको फलता है ॥४७॥ जिस प्रकार ऊपर क्षेत्रमें बोया गया बीज कुछ भी नहीं फलता है, उसी प्रकार कुपात्र और अपात्र में दिया गया दान कुछ भी नहीं फलता है ।।४८॥ करुणा भावसे, अथवा औचित्य देखकर दयालु पुरुषको अपनी शक्तिके अनुसार वृद्ध, दीन और कष्टमें पड़े हुए अन्य जीवोंको भी दान देना चाहिए ॥४९॥ अब सल्लेखना नामक चौथे शिक्षा व्रतका वर्णन करते हैं-निष्प्रतीकार रोग आनेपर, उपसर्ग आनेपर, दुर्भिक्ष पड़ने पर, और बुढ़ापा आनेपर अपने धर्मको रक्षाके लिए जो शरीरका त्याग किया जाता है, उसे ज्ञानियोंने सल्लेखना कहा है ॥५०॥ सल्लेखनाके समय बाह्य परिग्रह, स्नेह, वैर और अन्तरंग संगको प्रयत्नसे छोड़कर वात्सल्ययुक्त वचनोंसे औरोंको क्षमा कर अपने कुटुम्बी तथा अन्य जनोंसे क्षमा मांगे ॥५१|| पुनः इस जीवन में मन, वचन और कायसे संचित दोषोंकी निश्छल भावसे आलोचना करके और उत्साहयुक्त होकर शास्त्रका श्रवण करते हुए अपने आत्माकी भलीभांति भावना करे ।।५२।। पुनः यथा क्रमसे आहार, स्निग्धपान और खरपानका त्याग कर और उपवासका आश्रय लेकर 'अर्हन्' का ध्यान करता हुआ शरीरका परित्याग करे ॥५३॥ इस प्रकार इन उपर्युक्त बारह व्रतोंको अतीचार रहित पालन करता हुआ श्रावक नियमसे स्वर्ग लक्ष्मीका और मोक्ष लक्ष्मोका आश्रय बनता है ।।५४।। अब तीसरी सामायिक प्रतिमाका वर्णन करते हैं-देवोंके देव जिनेन्द्रदेवके उपदेशको समय कहते हैं ! उसमें पैदा होनेवाला अथवा नियुक्त जो कार्य है, वह सामायिक कहा जाता है ॥५५।। तीनों योगोंको व्यग्रताको छोड़कर तथा आरम्भ-परिग्रहको छोड़कर और स्नानादि अंग शुद्धिसे विशुद्ध होकर सामायिक करना चाहिए ॥५६॥ घरमें, जिनालयमें, अथवा अन्य किसी निर्दोष पवित्र स्थान पर बैठकर अथवा खड़े होकर प्रातः सन्ध्या आदि योग्य कालका आश्रय लेकर, दो नमस्कार, बारह आवर्त. चार शिरोनमनके साथ, (चैत्यभक्ति और पञ्चपरमेष्ठी भक्ति) दो भक्तियोंको, अथवा (इन दोनों भक्तियोंके साथ सिद्धभक्ति और शान्तिभक्ति मिलाकर) चार भक्तियोंका भक्ति पूर्वक उन्धारण कर निराकुल हो कायोत्सर्गसे अवस्थित होकर हृदयमें पञ्च नमस्कार पदको, अथवा पञ्च गुरुओंको अथवा सिद्धके स्वरूपको वह बुद्धिमान श्रावक चिन्तवन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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