SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१२ श्रावकाचार-संग्रह चित्रादिनिर्मिता नारी यत्र स्यान्मन्दिरेशुभा। तत्र स्थातुं न योग्यं च वतीनां किं तदाश्रिते ॥२५ कल लभते पूर्व दुस्त्यजं योषिताश्रयात् । प्रतिभिवंतभङ्गं च पश्चात् श्वभ्रगतिप्रदम् ॥२६ वरं सन्मरणं लोके ब्रह्मचर्यसमायुतम् । तद्विना न च जीवानां जीवितव्यमसंख्यशः ॥२७ शास्त्रवान् गुणयुक्तोऽपि तपसालङ्कृतो व्रती। ब्रह्मचर्यच्युतो लोके सर्वत्रैवावमन्यते ॥२८ दन्तभग्नो यथा नागो हस्तहीनो भटो नरः । दानहीनो गृहो नाभाद्ब्रह्मचर्यच्युतो व्रती ॥२९ विध्यापितोऽनलो यद्वल्लभ्यते चापमानताम् । सद्ब्रह्मतेजसा होनो व्रतो लोके च सर्वथा ॥३० विकलो ब्रह्मचर्येण यो यतिः स्वजनादिभिः । असत्कारं लभेतात्र किन्न सोऽन्यजनैरपि ॥३१ क्वचित्सारिव्याघ्राणां सङ्गमिच्छन्ति योगिनः । न च स्वप्नेऽघभीत्येव ब्रह्मवतच्युतात्मनाम् ॥३२ राजादिकजनात्सर्वं वधबन्धसमुच्चयम् । अब्रह्मचारिणो जीवा लभन्तेऽत्र न संशयः ॥३३ अमुत्र दुर्गति यान्ति ब्रह्मवतच्युताः शठाः । महापापभरेणैव घोरदुःखाकुलां ध्रुवम् ॥३४ जीवितव्यं वरं चैकदिनं ब्रह्मवतान्वितम् । तद्विना न च पूर्वाणां कोटीकोटीविशेषतः ॥३५ ब्रह्मचयं परित्यक्तं वतिना येन सौख्यदम् । सर्व व्रतादिकं तेन तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ॥३६ अब्रह्माज्जायते हिंसा वचोऽसत्यं नृणां ध्र वम् । आकाङ्क्षा च परस्यैव लक्ष्मीरामादिगोचरा ॥३७ चित्र भी हों उस मकानमें भी व्रतियोंको रहना ठीक नहीं है फिर भला जिनमें स्त्रियाँ स्वयं रहती हों उनमें तो रहना बहुत ही बुरा है ।।२५।। व्रतियोंको स्त्रियोंके साथ रहने में पहिले अमिट कलंक लगता है, फिर व्रतभंग होता है और फिर नरकगतिमें महा दुःख भोगने पड़ते हैं ॥२६॥ ब्रह्मचर्यको पालन करते हुए उस व्रतके साथ श्रेष्ठ मरण कर जाना अच्छा परन्तु ब्रह्मचर्य व्रतके विना असंख्यात वर्ष भी जीवित रहना अच्छा नहीं ॥२७॥ जो कोई मनुष्य अनेक शास्त्रोंका जानकार हो, गुणवान हो और तपश्चरणसे सुशोभित हो परन्तु ब्रह्मचर्य पालन न करता हो तो फिर संसारमें उसका कहीं कोई आदर सत्कार नहीं करता ॥२८॥ जिस प्रकार विना दाँतोंके हाथी शोभायमान नहीं होता, विना हाथोंके शूरवीर शोभा नहीं देता और विना दानके गृहस्थ शोभा नहीं देता उसी प्रकार ब्रह्मचर्यके विना व्रती मनुष्य भी शोभा नहीं देता ।।२९|| जिस प्रकार बुझाया हुआ अग्नि अपमानको प्राप्त होता है, निन्द्य समझा जाता है उसी प्रकार संसारमें ब्रह्मचर्यरूपी तेजसे रहित होनेपर व्रती मनुष्य भी सर्वथा निन्द्य समझा जाता है ॥३०॥ जो ब्रह्मचर्यसे रहित है वह घरका स्वामी होकर भी अपने ही कुटुम्बी लोगोंसे अपमानित होता है फिर भला वह अन्य लोगोंसे अपमानित क्यों न होगा ॥३१।। कहीं कहींपर योगीलोग सर्प, शत्रु और बाघ आदिके साथ रहना अच्छा समझते हैं परन्तु पापोंसे डरकर ब्रह्मचर्य व्रतको भंग करनेवालोंके साथ स्वप्नमें भी रहना स्वीकार नहीं करते ॥३२॥ ब्रह्मचर्यको भंग करनेवाले मनुष्योंको इस लोकमें भी राजाको ओरसे भी वध बन्धन आदिके अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।३३।। ब्रह्मचर्य को न पालनेवाले महा मूर्ख मनुष्य महा पापके भारसे परलोकमें भी घोर महा दु:खोंसे भरे हुए दुर्गतियोंके दुःख भोगते हैं ||३४|| ब्रह्मचर्य व्रतके साथ साथ एक दिन भी जीवित रहना अच्छा परन्तु विना ब्रह्मचर्यके करोड़ों पूर्वोतक भी जीवित रहना अच्छा नहीं ॥३५।। जिस व्रतीने समस्त सुख देनेवाला ब्रह्मचर्य व्रत छोड़ दिया उसने समस्त व्रतोंको छोड़ दिया ही समझना चाहिये क्योंकि विना ब्रह्मचर्यके कोई व्रत हो ही नहीं सकता ॥३६॥ ब्रह्मचर्यका भंग करनेसे हिंसा होती है, झूठ बोलना पड़ता है और स्त्री आदि पर पदार्थोंकी इच्छा करनी पड़ती है । इस प्रकार उसे सब प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy