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________________ तेईसवाँ परिच्छेद पाश्र्वनाथं जिनं वन्दे सुपाश्वं पार्श्वदायकम् । विनेयानां सुरैरच्यं प्रभुं तत्पार्श्व हेतवे ॥ १ भुवनत्रयसम्पूज्यां वक्ष्ये स्वर्मुक्तिहेतवे । प्रतिमां ब्रह्मचर्याख्यां दुष्करां कातराङ्गनाम् ॥२ बालां सत्कन्यकां सारां रूपलावण्यभूषिताम् । नारों सद्यौवनोन्मत्तां वृद्धां सर्वगुणाकराम् ॥३ स्वपुत्री - भगिनीमातृसमां पश्यति यः सदा । त्यक्ता च मनसा रागं ब्रह्मचारी भवेत्स ना ॥४ मुखं श्लेष्मादिसंसक्तं चर्मबद्धास्थिसञ्चयम् । सर्वामनोज्ञताधारं दुर्गन्धं कुटिलान्वितम् ॥५ मांसपिण्डौ स्तनौ रक्तभृतौ नेत्रादिलोभदौ । प्रोदरं सप्तसन्धातुविष्ठाक्रिम्यादिसङ्कुलम् ॥६ स्रवन्मूत्रादिकं निन्द्यं बीभत्सं जघनं सदा । पूतिगन्धाकरं घोरं श्वभ्रकूपमिवाशुभम् ॥७ इत्येवं च वरस्त्रीणां रूपं चित्ते स चिन्तयेत् । बाह्ये सत्सुन्दरं मध्येऽपवित्रं ब्रह्मतत्परः ॥८ ईग्विधं सुनारीणां रूपं चर्मावृतं सदा । पश्येद् यो ना भजेत्सोऽपि ब्रह्मचर्यं सुनिर्मलम् ॥९ कासश्वासादिसंरोगाः कफवातादिसम्भवाः । अब्रह्मचारिणां पुंसां जायन्ते दुःखवायकाः ॥१० अतृप्तजनक सेवा प्रान्ते चात्यन्तनीरसम् । अपवित्रकरं निन्द्यं निन्द्यकर्मसमुद्भवम् ॥११ जो पार्श्वनाथ भगवान् देवोंके द्वारा पूज्य हैं, शिष्योंको अपने समीप ही स्थान देनेवाले हैं, और जिनके समीपका निवास अनन्त सुख देनेवाला है ऐसे श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर परम देवको मैं उनके समीप पहुँचनेके लिये नमस्कार करता हूँ ||१|| अब मैं मोक्ष प्राप्त करनेके लिये तीनों लोकों में पूज्य और कातर जीवोंके लिये अत्यन्त कठिन ऐसी ब्रह्मचर्यं प्रतिमाको कहता हूँ ॥२॥ जो मनुष्य मनके सब राग भावोंको छोड़कर छोटी कन्याओंको अपनी पुत्रीके समान देखता है, रूप लावण्यसे सुशोभित यौवनवती स्त्रियोंको अपनी बहिनके समान देखता है और अत्यन्त गुणवती वृद्ध स्त्रियों को अपनी माताके समान देखता है वह ब्रह्मचारी कहलाता है ||३४|| देखो, स्त्रियोंका मुँह कफसे भरा हुआ है, चमड़ेसे मड़ा हुआ हड्डियोंका समूह है, सब बुरी चीजोंका आधार है, दुर्गन्धमय है और कुटिल है ||५|| स्त्रियों के स्तन मांसके पिंड हैं, रक्त से भरे हुए हैं, नेत्रोंको लोभ उत्पन्न करनेवाले हैं और नरककी सीढी हैं, पेट सात धातु विष्ठा तथा अनेक प्रकार के कीड़ोंसे भरा हुआ है ||६|| स्त्रियोंका जघनस्थल अत्यन्त घृणाजनक है, निन्द्य है, मूत्रादिक मल सदा उससे बहता रहता है, अत्यन्त दुर्गन्ध सहित है और घोर नरक -कूपके समान अशुभ है ||७|| पवित्र ब्रह्मचर्य में तत्पर रहनेवाले मनुष्यों को अपने हृदय में स्त्रियों का स्वरूप इस प्रकार चितवन करना चाहिये कि यह स्त्रियोंका रूप केवल बाहर से ही सुन्दर दिखता है किन्तु भीतर तो अति अपवित्र है ||८|| स्त्रियोंका स्वरूप इसी प्रकारका है, यह केवल ऊपरसे चमड़ेसे ढका हुआ है, जो पुरुष ऐसी स्त्रियोंका त्याग करता है उसके निर्मल ब्रह्मचर्य होता है || ९ || जो पुरुष ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करते उनके अत्यन्त दुःख देनेवाले कास, श्वास, कंप, वायु आदि अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न हो जाते हैं || १०|| स्त्रीसेवनसे कभी तृप्ति नहीं होती, प्राप्त होनेपर यह अत्यन्त नीरस होता है, अत्यन्त अपवित्र है, अपवित्रता करनेवाला है, निद्य है, निद्य क्रियासे उत्पन्न होता है, अशुद्ध स्थानों से उत्पन्न होता है, भयानक है, तीव्र दु:ख उत्पन्न करनेवाला है, महा मुनिराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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