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________________ ३७६ श्रावकाचार-संग्रह वरं हालाहलं दत्तं भवैकप्राणनाशनम् । न कुदानं कुपात्रेभ्यो वृत्तज्ञानादिघातकम् ॥१६० कुदानं सन्मुनिभ्यो यो दत्त मूढोऽशुभप्रदम् । वृत्तघातादिसञ्जातपापात्श्वने पतत्यधोः ॥१६१ कृपणत्वं वरं लोके नैव दातगुणो नणाम् । कुदानप्रभवो दुःखकारणं पापसागरः ॥१६२ यो धनाढयो मुनीशेभ्यो दत्ते चारित्रनाशकम् । कुदानं स श्रयेत्पापाद्दारिद्रयं च भवे भवे ॥१६३ कुदानस्यैव यो दाता स दाता कथ्यते न च । सुदानस्य प्रदत्ता यो दाता स उच्यते जिनैः १६४ तस्मात्यक्त्वा कुदानं हि दानमुत्तममञ्जसा । महत्पुण्यप्रदं दक्षैर्दातव्यं कर्महानये ॥१६५ यदि स्वामिन्न दातव्यमन्यद्दानं गृहाश्रितैः । धनाढयैश्च महद्रव्यं लोकैः किं क्रियते वद ॥१६६ कुरु वत्स जिनागारं बिम्वं च नित्यजिनम् । प्रतिष्ठादिकसत्कर्म मुक्त्यै द्रव्येण प्रत्यहम् ॥१६७ चैत्यगेहं विधत्ते यो जिनबिम्बसमन्वितम् । फलं तस्य न जानामि नित्यं धर्मप्रवर्द्धनात् ॥१६८ अनेकजीवसाधारं जिनागारं करोति यः । धर्मप्रवर्द्धकं तस्य प्रत्यहं स्यान्महवृषम् ॥१६९ जिनगेहसमं पुण्यं न स्याच्च सद्गृहिणां क्वचित् । स्वर्गसोपानमादौ च मुक्तिस्त्रीदायकं कमात् ॥१७० जिनेन्द्रमन्दिरे सारे स्थिति कुर्वन्ति येऽङ्गिनः । तेभ्यः संवर्द्धते धर्मो धर्मात्संपत्परं नृणाम् ॥१७१ सारचन्दनपुष्पादिद्रव्य : पूजां विधाय वै । समजयन्ति सत्पुण्यं भव्याः श्रोजिनमन्दिरे ॥१७२ ऐसा दान उत्तम विद्वानोंको कंठगत प्राण होनेपर भी नहीं देना चाहिये ॥१५६-१५९।। हलाहल विष देना अच्छा परन्तु कुपात्रोंको व्रत और ज्ञानको घात करनेवाला कुदान देना अच्छा नहीं, क्योंकि हलाहल विष देनेसे एक भवमें ही प्राण नष्ट होते हैं, परन्तु कुपात्रोंको कुदान देनेसे अनेक भवोंमें दुःख भोगना पड़ता है ॥१६०॥ जो अज्ञानी उत्तम मुनियोंके लिये पाप उत्पन्न करनेवाला कुदान देता है, वह सम्यक्चारित्रके घात करनेसे उत्पन्न हुए पापसे नरकमें ही पड़ता है ।१६१।। संसारमें कृपण होना अच्छा परन्तु कुदानसे होनेवाले अनेक दुःखोंके कारण और पापोंके महासागर ऐसे दाताके दुर्गुण होना अच्छा नहीं ॥१६२॥ जो धनी पुरुष मुनिराजोंके लिये सम्यक्चारित्रको नाश करनेवाला कुदान देता है वह महापापी होता है और उस पापसे भव-भवमें दरिद्रता धारण करता है ॥१६३।। जो कुदानोंको देनेवाला है वह दाता कभी दाता नहीं कहा जा सकता और जो सुदानका देनेवाला है, भगवान् जिनेन्द्रदेवने उसीको दाता बतलाया है ॥१६४।। इसलिये चतर पुरुषोंको अपने कर्म नष्ट करनेके लिये कुदानोंको छोड़कर महापुण्य उत्पन्न करनेवाला उत्तम दान देना चाहिये ।।१६५।। प्रश्न हे स्वामिन् ! यदि गृहस्थ लोगोंको धन आदिका दान नहीं देना चाहिये तो फिर संसारमें प्राप्त हुए बहुतसे धनका क्या करना चाहिये ॥१६६।। उत्तर हे वत्स ! मोक्ष प्राप्त करनेके लिये शुभ कर्मके उदयसे प्राप्त हुए धनसे जिनभवन बनवाना चाहिये और भगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठाकर पूजा आदि सत्कर्म सदा करते रहना चाहिये ।।१६७|| जो धनी जिनविम्बके साथ-साथ जिनभवन बनवाता है वहाँपर पूजा, स्वाध्याय आदि नित्य कर्म सदा होते रहते हैं इसलिये उसके पुण्यरूप फलोंको हम जान भी नहीं सकते ॥१६८॥ जो धनी अनेक जीवोंका आधारभूत (जिसमें अनेक जीव आकर पुण्य उपार्जन करते हैं) जिनभवन बनवाता है उसके प्रतिदिन धर्मकी वृद्धि होनेसे महाधर्म वा महापुण्य प्राप्त होता है ॥१६९।। गृहस्थोको जिन-भवन बनवानेके समान अन्य कोई पुण्य नहीं है। यह प्रथम तो स्वर्गकी सीढ़ी है और फिर अनुक्रमसे मुक्तिरूपी स्त्रीको देनेवाला है ॥१७०॥ सारभूत मनोहर जिनभवनों में मनिराज आकर निवास करते हैं, उन मुनिराजोंसे धर्मकी वृद्धि होती है और धर्मसे मनुष्योंको परम सम्पत्तिकी प्राप्ति होती हैं ।।१७१॥ भव्य जीव श्री जिनभवनमें जाकर चन्दन पुष्प आदि उत्तम-उत्तम द्रव्योंसे भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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