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________________ ૬૬ अविकाचार-संग्रह आचारसूचकं सारं मुनीनां गृहिणामपि । द्रव्याणां गुणपर्यायभेदाभेदप्ररूपकम् ॥२७ पूर्वापरविरुद्धादिदोषदूरं विवेकिभिः । ज्ञानिनो हि सुपात्राय बुद्धिसंवेगशालिने ॥२८ ज्ञानदानं प्रदातव्यं पुस्तकं वा मुनीश्वरेः । गृहस्थैः स्वोपकाराय पात्राज्ञानाबिहानये ॥२९ शीतवातादिसंत्यक्ता शून्यगृहमठादिका । सूक्ष्मजीवादिनिर्मुक्ता कारितादिविर्वाजता ॥३० स्वभावनिर्मिता सारा देया वसतिकाऽमला । गृहस्थैः सारपात्राय धर्मध्यानादिसिद्धये ॥३१ मृत्य्वादिभयभीतेभ्यस्त्रस्तेभ्योऽपि निरन्तरम् । दुःखशोकादिग्रस्तेभ्यः स्थावरेभ्योऽपि सुपुण्यदम् ॥३२ अभयाख्यं महादानं सर्वजीवेभ्य एव हि । दातव्यं व्रतशुद्धचे सद्गृहस्थैर्मुनिनायकैः ॥ ३३ आहारदानतः सम्यग्ज्ञानवृत्तादयो गुणाः । वृद्धि यान्ति यतीशानां यथानन्दाः सुध्यानतः ॥ ३४ वपुः स्थिरं भवेन्नूनं व्युत्सर्गादितपोगुणे । बाहारदानयोगेन मुनीनां पर्वतादिवत् ॥ ३५ प्राणास्तिष्ठन्ति नश्येच्च क्षुधादिजनिता व्यथा । अन्नात्सत्पात्रवृन्दानां यथा रोगो वरौषधात् ॥३६ आहारेण विना किचित्तपोवृत्तादिकं मुनिः । अनुष्ठातुं न शक्नोति त्यक्तग्रासो यथा गजः ॥ ३७ आहारबलसामर्थ्यात्तपः सर्वे यतीश्वराः । आचरन्ति महाघोरं ग्रासपुष्टा गजा इव ॥३८ तस्माद् दत्तो वर|हारो येन पात्राय भावतः । सर्वं यमादिकं तेन दत्तं ज्ञानादिभिः समम् ॥३९ प्रकाशित करनेवाले, भगवान् जिनेन्द्रदेवके मुखसे उत्पन्न हुए, गौतमादि गणधरोंके द्वारा गूंथे हुए गृहस्थ व मुनियोंके चारित्रको निरूपण करनेवाले, द्रव्योंके गुण पर्यायोंके द्वारा होनेवाले भेद अभेदों को प्रगट करनेवाले तथा पूर्वापर विरुद्ध आदि दोषोंसे रहित ऐसे शास्त्र अपना उपकार करनेके लिये और पात्रोंका अज्ञान दूर करने के लिये अवश्य देने चाहिए । यह ज्ञान दान वा शास्त्र दान गृहस्थ भी मुनियोंके लिये करते हैं तथा मुनि भी परस्पर एक दूसरेके लिये करते हैं ।। २६-२९।। इसी प्रकार उत्तम पात्रों को धर्मध्यानादिकी सिद्धिके लिये गृहस्थोंको ऐसी वसतिकाका दान देना चाहिए जिसमें शीत वायु आदि न जा सके, जो सूने घरके रूपमें हो वा सूने मठके रूपमें हो, जिसमें सूक्ष्म जीवोंका निवास न हो, जो कारित आदि दोषोंसे रहित हो, स्वभावसे बनी हो, अच्छी हो और निर्मल हो । ऐसे वसतिकाका दान मुनियोंके लिये अवश्य देना चाहिए ||३०-३१ || श्रेष्ठ गृहस्थोंको अथवा मुनियोंको अपने व्रत शुद्ध रखनेके लिये पुण्य बढ़ानेवाला अभयदान नामका महादान देना चाहिए और वह ऐसे जीवोंको देना चाहिए जो मृत्युके भयसे भयभीत हों, जो सदा दुःखी रहते हों और दुःख शोक आदिके फन्देमें पड़ गये हों, ऐसे त्रस वा स्थावर जीवोंको भी वह अभयदान देना चाहिए ।।३२-३३ || आहारदान देनेसे मुनियोंके सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि गुणोंकी वृद्धि होती है। और फिर उत्तम ध्यान होनेसे उनके आत्मानुभवका आनन्द आया करता है ||३४|| आहारदानके सम्बन्वसे मुनियोंका शरीर कायोत्सर्ग आदि गुणरूप तपश्चरणमें पर्वतके समान स्थिर हो जाता है ||३५|| जिस प्रकार उत्तम औषधिसे रोग नष्ट हो जाते हैं और प्राण बच रहते हैं उसी प्रकार आहारसे उत्तम पात्रोंकी क्षुधा आदिक व्याधियाँ दूर हो जाती हैं और उनके प्राण बने रहते हैं ||३६|| जिस प्रकार आहार छोड़ देनेपर हाथी कुछ नहीं कर सकता, उसी प्रकार विना आहारके मुनि भी तपश्चरण, चारित्र, ध्यान आदि कुछ नहीं कर सकते ||३७|| जिस प्रकार भोजनसे पुष्ट हुआ हाथी सब कुछ कर सकता है उसी प्रकार समस्त मुनिराज आहारके बलकी सामर्थ्यसे ही महा घोर तपश्चरण करते हैं ||३८|| इसलिये जिसने भावपूर्वक उत्तम पात्रके लिये श्रेष्ठ आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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