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________________ श्रावकाचार-संग्रह धर्मसंवेगवैराग्याधिष्ठितं रागदूरगम् । सामायिकादिसूत्रस्य चार्थ सञ्चिन्तयेद् बुधः ॥३८ त्यक्त्वा वाग्जालदुःशब्दविकथादिकदम्बकम् । तीव्रादिध्वनिनिर्मुक्तं त्यक्तहीनादिकं शुभम् ॥३९ स्वराक्षरपदार्थाविशुद्धं सामयिकस्य भो। मधुरादिस्वरेणैव पठ सूत्रं स्वशुद्धये ॥४० कृत्वेर्यापथसंशुद्धि द्वयादिघटिकाङ्किताम् । मर्यादां च विधायादो चैत्यभक्ति भजस्व भो ॥४१ नमस्कारं कुरु त्वं भो प्रतिलिल्य घरां शुभाम् । वस्त्रेणान्येन वा धीरः पञ्चाङ्गादिसमन्वितम् ॥४२ ऊ:भूय पुनश्चैव कार्योत्सर्ग विशुद्धिदम् । नमस्कारनवोपेतं कुरु त्वं भव्य ! मुक्तये ॥४३ यावावन्ते बृहन्नाम नमस्कारस्य त्वं भज । एकैकं सत्प्रणामं च त्रितयावर्तसंयुतम् ॥४४ चतुर्विंशतिलोकेशस्तवनस्यापि भो बुधाः । आदावन्ते नमस्कारं भजावर्तत्रयान्वितम् ॥४५ एकस्मिन्नेव ब्युत्सर्गे नमस्कारचतुष्टयम् । भवेयुः द्वादशावार्ता सामायिकवशात्मजनाम् ॥४६ त्याविस्तवनं कृत्वा नु पञ्चपरमेष्ठिनाम् । कायोत्सर्गादिकं सर्वं कुरु लोकोत्तमात्मनाम् ॥४७ एकचित्तेन मुक्त्यथं भव्य ! आदरसंयुतः । सुव्युत्सर्गादिकं सर्वं कुर्यात्सामायिकस्य वै ॥४८ विचिन्तय त्वमनुप्रेक्षा अनित्याशरणादिकाः । वैराग्यादिविवृद्धयर्थं धर्मसंवेगमाकृथाः ॥४९ देहसंसारभोगेषु वैराग्यं भावय स्फुटम् । अशुच्यातिमहादुःखश्वभ्रमार्गप्रदेषु भो ॥५० पशव्यसप्ततत्त्वेषु सम्यक्त्वाधाकरेषु च । भावनां कुरु भो भव्य ! साररत्नत्रयादिषु ॥५१ उस समय बुद्धिमानोंको अपने हृदयमें धर्म संवेग और वैराग्य धारण करना चाहिये, रागद्वेष छोड़ देना चाहिये और सामायिक पाठके अर्थका चिन्तवन करना चाहिये ॥३८॥ वाग्जाल, कठोर शब्द, विकथा आदिका त्याग कर देना चाहिये। सामायिक पाठको मधुर स्वरसे पढ़ना चाहिये, स्वर अक्षर पदार्थ आदिका शुद्ध उच्चारण करना चाहिये, न जोरसे न धीरे पढ़ना चाहिये, पाठके अक्षर न कम हो न अधिक हों। अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिये शुभ और शुद्ध पाठ पढ़ना चाहिये ॥३९-४०॥ सबसे पहिले ईर्यापथ शुद्धि करनी चाहिये और फिर दो घड़ीका नियम लेकर चैत्य भक्तिका पाठ पढ़ना चाहिये ॥४१॥ फिर वस्त्रसे वा अन्य किसी पीछी आदि साधनसे पृथ्वीको शुद्ध कर पंचांग वा अष्टांग नमस्कार करना चाहिये ॥४२॥ फिर खड़े होकर आत्माको शुद्ध करनेवाला कायोत्सर्ग करना चाहिए, अर्थात् मोक्ष प्राप्त करनेके लिये नौवार नमस्कार मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥४३॥ आदि और अन्तमें वृहत् नमस्कार करना चाहिये अर्थात् एक एक प्रणाम करना चाहिये और तीन तीन आवतं करना चाहिये ॥४४॥ तदनन्तर बुद्धिमानोंको चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति करनी चाहिये तथा इसके आदि अन्तमें भी एक-एक नमस्कार और तीन-तीन आवर्त करने चाहिये ॥४५॥ सामायिक करनेवालोंको एक-एक व्युत्सर्ग में (कायोत्सगमें जो कि आदि अन्तमें किया जाता है) चार-चार नमस्कार और बारह-बारह आवर्त करने पड़ते हैं ॥४६॥ फिर चैत्यस्तवन कर पांचों परमेष्ठियोंका स्तवन करना चाहिये । और फिर कायोत्सर्गादि समस्त क्रियाएं कर लोकोत्तम पाँचों परमेष्टियोंका स्तवन करना चाहिये ।।४७॥ हे भव्य ! मोक्ष प्राप्त करनेके लिये सामायिक करते समय चित्तको एकाग्रकर आदरपूर्वक व्युत्सर्ग आदि सब क्रियाएं करनी चाहिये ॥४८॥ वैराग्य परिणामोंको बढ़ानेके लिये, आत्माका कल्याण करनेके लिये, और संवेग धारण करनेके लिये अनित्य अशरण आदि अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करना चाहिये ॥४९॥ यह शरीर अपवित्र है, संसार अनेक महा दुःखोंसे परिपूर्ण है और भोग नरकोंके दुःख देनेवाले हैं इसलिए शरीर संसार और भोगोंसे सदा विरक्त रहना चाहिये ।।५०॥ छह द्रव्य और सातों तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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