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________________ श्रावकाचार-संग्रह त्यक्त्वा सर्वानतीचारान् ये देशविरति नराः । कुर्वन्ति च भवेत्तेषां स्वर्गलक्ष्मीगृहाङ्गणे ॥१२ स्वामिनो मे व्यतीपातान् सन्दिशध्वं व्रतस्य वै । वक्ष्येऽहं शृणु ते वत्स ! व्रतपञ्चव्यतिक्रमान् ॥१३ प्रथम प्रेषणं शब्दो भवेच्चानयनं ततः। रूपाभिव्यक्तिरप्येव पुद्गलक्षेप एव हि ॥१४ यो मर्यादीकृते देशे स्वयं स्थित्वा ततो बहिः । अन्यस्य प्रेषणं दत्ते व्यतीचारं लभेत् सः ॥१५ संख्याद्देशाद बहिर्दृष्ट्वा यो ना कर्मकरान् प्रति । खात्करणादिकं चक्रे कार्याथं सोऽपि दोषभाक् ॥१६ तद्देशाद्वहिरन्यस्मानराद्वस्त्वादिकं हि यः । आनापयाति कार्यार्थ दोषमानयनं भवेत् ॥१७ स्थित्वा मर्याददेशे यो विधत्ते रूपसंज्ञया। कार्य कर्मकराणां च व्यतीपातं भवेद् ध्रुवम् ॥१८ सेवकेभ्योऽपि यत्कायं लोष्टादिक्षेपसंज्ञया। कारापयति तस्यैव भवेद्दोषो व्रतस्य वै ॥१९ मर्यादादेशतो बाह्ये कारापयति यो जनः । प्रेषणादोन तस्य स्यादतीचारो मनागपि ॥२० इति मत्वा कुरु त्वं भो देशावकाशिकं सदा । प्रयत्नेन व्रतायैव धर्मदं पापनाशनम् ॥२१ उक्तं शिक्षाव्रतं चाद्यं वक्ष्ये सामायिकं ततः । सागाराणां विशुद्धयर्थ बतायाशुभघातकम् ॥२२ नामसंस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालेषु श्रीजिनैः । उक्तं सामायिक भावे षड्विधं धर्मशुक्लदम् ॥२३ - धर्म धारण करनेके लिये और व्रतोंको पालन करनेके लिये चंचल परिणामोंको छोड़कर कालकी मर्यादाकर तथा घर आदिको सीमा नियतकर तुझे यह देशावकाशिक व्रत अवश्य धारण करना चाहिये ॥११॥ जो मनुष्य समस्त अतिचारोंको छोड़कर इस देशावकाशिक व्रतको धारण करते हैं उनके धरके आंगन में स्वर्गकी लक्ष्मी आपने आप आ जाती है ।।१२।। प्रश्न हे स्वामिन् ! कृपाकर देशावकाशिक व्रतके अतिचारोंको निरूपण कीजिये । उत्तर-हे वत्स ! सुन, अब मैं इस व्रतके पांचों अतिचारोंको कहता हूँ ॥१३|| प्रेषण, शब्द, आनयन, रूपाभिव्यक्ति और पुद्गलक्षेपण, ये पांच अतिचार देशावकाशिकके कहलाते हैं ॥१४॥ जो स्वयं मर्यादा किये हुए देशके भीतर रहकर भी मर्यादाके बाहर किसी दूसरेको भेजता है उसके प्रेषण नामका पहिला अतिचार लगता है ॥१५।। जो मनुष्य मर्यादाके भीतर रहता हुआ भी काम करनेवालोंको मर्यादाके बाहर देखकर उनको काम लगानेके लिए या भीतर बुलानेके लिए खकारकर या और किसी प्रकारके शब्दोंका इशारा करता है वह भी दोषी हो है अर्थात् उसके शब्द नामका दूसरा अतिचार लगता है ।।१६।। अपनी नियतकी हुई मर्यादाके बाहर रखे हुए पदार्थोंको अपने किसी कामके लिये किसी मनुष्यके द्वारा मँगाना आनयन नामका अतिचार है ।।१७।। अपनी नियत की हुई मर्यादाके भीतर रहकर भी काम करनेवालोंको अपना रूप दिखाकर उनसे कोई काम लेना रूपाभिव्यक्ति नामका अतिचार है ॥१८॥ जो मर्यादाके भीतर रहकर भी मर्यादाके बाहर इंट पत्थर ढेले आदि फेंककर उनके इशारेसे अपने सेवकोंसे वा अन्य किसीसे काम कराना पुद्गलक्षेपण नामका अतिचार है ॥१९॥ जो नियत की हुई मर्यादाके बाहर न तो किसीको भेजता है न बाहरसे कुछ मंगाता है और न किसी प्रकारका इशारा करता है उसके व्रतमें कोई दोष नहीं लग सकता ॥२०॥ यही समझकर हे भव्य ! व्रतोंको पालन करनेके लिये तू धर्मको बढानेवाले और पापोंको नाश करने वाले इस देशावकाशिक व्रतको बड़े प्रयत्नसे पालन कर ॥२१॥ इस प्रकार शिक्षाव्रत कह चुके । अब आगे व्रतोंके लिए और श्रावकोंकी विशुद्धता बढ़ानेके लिए पापोंको नाश करनेवाले सामायिकको कहते हैं ।।२२।। यह धर्मध्यान और शुक्लध्यानको प्रगट करनेवाला सामायिक श्री जिनेन्द्रदेवने नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावके भेदसे छह प्रकारका बतलाया है ।।२३।। जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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