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________________ श्रावकाचार-संग्रह सौधर्मपतिना नाके ते प्रशंसा यथा कृता । साधिकातो भवेन्नूनं सन्तोषव्रतसम्भवा ॥७८ तां समाकण्यं देवाहं प्रागतस्ते परीक्षितुम् । अद्य मे निर्णयो जातो दृष्ट्वा त्वां पुरुषोत्तमम् ॥७९ इत्युक्त्वा पूजयित्वा च वस्त्राभरणमण्डनः। प्रणम्य सोऽमरो नाकं प्रशस्य मुहुरप्यगात् ।।८० ततो जयकुमारोपि गृहमागत्य प्रत्यहम् । धृत्वा स्वमानसे धर्म भुङ्क्ते संसार सुखम् ॥८१ कदाचिज्जातवैराग्यस्त्यक्त्वा राज्यं तृणादिवत् । हत्वा मोहं महापापं दीक्षां जग्राह पुण्यधीः ॥८२ कृत्वातिदुस्सहं सारं तपो वैराग्यभावतः । हत्वा कर्माणि सर्वाणि जयोऽगादव्ययं पदम् ॥८३ अन्ये ये बहवः प्राप्ताः सुखं सन्तोषसवतात् । श्रावकाः कः कथां तेषां क्षमः कथयितुं भुवि ॥८४ अखिलगुणसमुद्रः पूजितो नाकदेवैः, सुरपतिकृतशंसो घोरवीरो बुधाच्यः । . विगतसकलशङ्कस्त्यक्तलोभो मुनीन्द्रो, जयतु भुवनसेव्यो मुक्तिनाथो जयाख्यः ॥८५ वतसन्तोषजं त्यक्त्वा धर्मसारगुणाकरम् । लोभं करोति यो मूढः प्राघूर्णो दुर्गतेः स ना ॥८६ भो भट्टारक ! येनैव प्राप्तं दुःखं व्रतं विना । परिग्रहप्रमाणाख्यं कथां तस्य निरूपय ॥८७ उपासक ! शृणु त्वं हि कृत्वा चित्तं सुनिश्चलम् । प्रवक्ष्येऽहं कथां सारां ते श्मश्रुनवनीतजाम् ॥८८ अत्रैव भारते वर्षेऽयोध्यायां श्रेष्ठिनन्दनः । भवत्तोऽभवद्भार्या धनदत्ता सुखप्रदा ॥८९ तयोः पुत्रोऽभवल्लुब्धदत्तो लोभसमाकुलः । वाणिज्येन गतो दूरमेकदा द्रव्यहेतवे ॥९० इन्द्रने आपके सन्तोष व्रतकी बहुत अधिक प्रशंसा की थी परन्तु वास्तवमें आपकी प्रशंसा उससे भी अधिक है उसे सुनकर ही हम आपकी परीक्षा लेनेके लिये आये थे। हे पुरुषोत्तम ! आपको देखकर अब हमारा निर्णय हो गया ॥७७-७९॥ इस प्रकार कहकर तथा वस्त्राभरणोंसे उसकी पूजाकर नमस्कारकर और अनेक प्रकारसे प्रशंसाकर वह देव अपने स्थानको चला गया ||८०|| तदनन्तर जयकुमार भी अपने घर आया और प्रतिदिन धर्मको हृदयमें धारणकर संसारके सुख भोगने लगा ॥८१॥ किसी समय उस पुण्यवानको वैराग्य उत्पन्न हुआ, उसने तृणके समान राज्यका त्याग कर दिया, और मोहरूपी महा पापका नाश कर दीक्षा धारण कर ली ।।८२।। तदनन्तर उन जयकुमारने वैराग्यभावनाओंके द्वारा सारभूत असह्य तपश्चरण किया और समस्त कर्मोको नाश कर अजर अमर मोक्षपद प्राप्त किया ॥८३॥ और भी बहुतसे श्रावकोंने इस सन्तोष व्रतको धारणकर अनुपम सुख प्राप्त किया है, इस संसारमें उन सबकी कथाओंको कौन कह सकता है ॥४४॥ जो समस्त गुणोंके समुद्र थे, स्वर्गके देवोंने भी जिनकी पूजा की थी, इन्द्रने भी जिनकी प्रशंसा की थी, जो धीरवीर थे, विद्वानोंके द्वारा पूज्य थे, समस्त शंकाओंसे रहित थे, लोभके सर्वथा त्यागी थे, संसारभर जिनकी सेवा करता था और जो मुक्ति-लक्ष्मीके स्वामी हुए थे ऐसे मुनिराज जयकुमार सदा जयशील हो ॥८५॥ जो मूर्ख धर्मरूप और साररूप गुणोंकी खानि ऐसे सन्तोष व्रतको छोड़कर लोभ करता है वह अनेक दुर्गतियों के दुःख भोता है ।।८।। प्रश्न-हेस्वामिन् ! इस परिग्रहपरिमाण नामके व्रतके विना जिसने दुःख पाया है उसकी कथा कृपाकर कहिये ॥८७॥ उत्तर-हे श्रावकोत्तम ! तू चित्त लगाकर सुन, मैं परिग्रहपरिमाण व्रतको न पालनेवाले अत्यन्त लोभी ऐसे श्मश्रुनवनीतकी कथा कहता हूँ॥८८। इसी भरतक्षेत्रके अयोध्या नगरमें भवदत्त नामका एक सेठका लड़का था उसको सुख देनेवाली धनदत्ता नामकी उसकी स्त्री थी ।।८।। उन दोनोंके एक पुत्र हुआ था उसका नाम लघुदत्त था। वह अत्यन्त लोभी था। किसी एक समय द्रव्य कमाने और व्यापार करनेके लिये वह दूर देशान्तरमें गया ॥९०॥ वहांपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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