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________________ ३०४ श्रावकाचार-संग्रह सन्ति स्वामिन्नतीचारा ये चाचौर्यव्रतस्य भो। निरूपयतु तान् सर्वानोवानुग्रहाय मे ॥२६ शृणु त्वं व्रतशुद्धयर्थं वक्ष्येऽतीचारपञ्चकम् । एकचित्तेन भो धीमन् ! सर्वव्रतमलप्रदम् ॥२७ स्तेनप्रयोगश्च तदाहृतादानं हि सम्भवेत् । ततो विरुद्धराज्यादिक्रमोपि तृतीयो मतः ॥२८ पश्चाद्धोनाधिकमानोन्माननाम प्ररूपितः । जिनेन्द्रः प्रतिरूपैकव्यवहारोऽप्यतिक्रमः ॥२९ अन्येषामुपदेशं यो दत्ते चौर्यादिकर्माणि । अतीचारो भवेत्तस्य प्राद्यो व्रतविनाशकः ॥३० आनीतमुपदेशेन विना चौरेण यद्धनम् । तत्स्वं गृह्णाति यो मूढो व्यतीपातो लभेत् सः ॥३१ राजनीति परित्यज्य व्यवसायं करोति यः। परेषां वञ्चनाद्यर्थ लभते सोप्यतिक्रमम् ॥३२ तुलाप्रस्थादिमानेन हीनं दत्ते परस्य यः । गृह्णाति चाधिक वस्तु व्रतदोषं भजेत्स ना ॥३३ श्रष्ठवस्त्वादिके यस्तु होनवस्त्वादिकं क्षिपेत् । करोति हेमहिंग्वादि कृत्रिमं तस्य स्यात्स वै ॥३४ सर्वातीचारसम्त्यक्तं धत्ते यस्तृतीयं व्रतम् । कृत्वा सन्तोषमेकं हि स्युस्तस्य सर्वसम्पदः ॥३५ विविधदुखकरं वै धर्मविध्वंसहेतु, दुरितकुवनमेघ दुःखसन्तापगेहम् । नरकगृहकुमार्ग धर्मवृक्षव्रजाग्नि, त्यज सकलमदत्तं दुधनं भो परेषाम् ॥३६ बुधैकसेव्यं हतसर्वदोषं सन्तोषमूलं सुयशःप्रदम् भो।। स्वर्मुक्तिहेतोर्वतधर्मगेहं, व्रतं तृतीयं भज सर्वकालम् ॥३७ प्रश्न-हे स्वामिन् ! मुझ पर कृपा कर आज इस अचौर्य व्रतके सब अतिचारोंको कहिये ।।२६।। उत्तर-हे धोमन् ! व्रतोंको शुद्धिके लिये मैं व्रतोंको दूषित करनेवाले पांचों अतिचारोंको कहता हूँ, तू चित्त लगा कर सुन ॥२७॥ स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान, और प्रतिरूपक व्यवहार ये पाँच अचौर्य व्रतके अतिचार श्री जिनेन्द्रदेवने कहे हैं ॥२८-२९|| चोरी करनेके लिये दूसरों को उपदेश देना या चोरीके उपाय बतलाना अचौर्य व्रतका स्तेनप्रयोग नामका पहिला अतिचार है ॥३०॥ अपने विना किसी उपदेशके जो चोर चोरी करके लाया है उसके धनको घरमें रख लेना तदाहृतादान (चोरीका धन ग्रहण करना) नामका दूसरा अतिचार है ॥३१॥ जो राजनीतिको छोड़कर व्यापार करता है और अधिक धन ग्रहण करता है उसके विरुद्ध राज्यातिक्रम नामका तोसरा अतिचार लगता है ॥३२॥ जो तौलनेके वाँट और नापनेके गज पायली आदिको लेनेके लिये अधिक रखता है और देने के लिये कम रखता है उसके होनाधिक मानोन्मान नामका चौथा अतिचार लगता है ॥३३॥ जो उत्तम पदार्थों में कम कीमतके पदार्थ मिलाकर चलाता है और सुवर्ण हींग आदिको कृत्रिम बनाता है उसके प्रतिरूपक व्यवहार नामका अतिचार लगता है ।।३४।। जो प्राणो इन सब अतिचारोंको छोड़कर और केवल एक सन्तोष धारणकर इस अचौर्यव्रतको पालन करता है उसके समस्त सम्पदा स्वयमेव आ जाती है ।।३५॥ इस संसारमें दूसरेका धन ग्रहण करनेसे अनेक द्रकारके दुःख सहने पड़ते हैं, धर्मका विध्वंस हो जाता है, यह पापरूपी वनको सोचनेके लिये मेघके समान है. दुःख और सन्तापोंका घर है, नरकरूपी घरका कुमार्ग है और धर्मरूपी वृक्षको जलानेके लिये अग्नि है इसलिये हे भव्य ! ऐसे इस परधनहरण करनेका तू सदा त्यागकर ॥३६।। यह अचौर्य अणुव्रत सब दोषोंसे रहित है, सन्तोषको जड़ है, यश और प्रसन्नताको बढ़ानेवाला है, स्वर्ग-मोक्षका कारण है, धर्म और व्रतोंका घर है और समस्त विद्वान् इसकी सेवा करते हैं इसलिये हे भव्य ! तू भी सदा इसका पालन करा॥ ३७॥ जो प्राणी विना दिये हुए पदार्थोंको ग्रहण नहीं करता वह देवोंके द्वारा भी पूज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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