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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २१७ आकाशं निर्मलं विद्धि प्रांधकारविजिताः । दिशश्चाह्वाननं कुर्युर्देवा इन्द्राया सदा ॥६८ धर्मचक्रं स्फुरद्रत्नं हेमनिर्मापितं भवेत् । सहस्त्रारं महादीप्तं श्रीतीर्थस्वामिसन्निधौ ॥६९ एतान् देवा हि कुर्वन्ति जिनेन्द्राणां महागुणान् । चतुर्दश भवन्त्येव सर्वेऽत्रातिशया वराः ॥७. अशोकाख्यो महावृक्षः पुष्पवृष्टिरनेकधा । भाति सर्वगणोपेता दिव्यध्वनिरनोपमा ७१ वीज्यमानो जिनो देवैश्चतुःषष्टिप्रकीर्णकः । सिंहासनत्रयं रेजे वीप्तं भामण्डलं सवा २ सार्द्धद्वादशसंकोटिवाविर्भाति देवजैः । दुन्दुभिः शब्द एवात्र श्वेतछत्रत्रयं भवेत् ॥७३ प्रातिहार्याष्टकैः देवकृतैः श्रीजिननायकाः । भान्ति प्रान्तव्यतिकान्तं ज्ञानं केवलवर्शनम् ॥७४ अनन्तं च महावीयं सुखं वाचामगोचरम् । पिण्डीकृताः गुणाः सर्वे षट्चत्वारिंशदेव स्युः ॥७५ अन्ये गुणा जिनेन्द्राणां बहवः सन्ति भूतले । विज्ञेया मुनिभिरन्यशास्त्रादुपशमादिकाः ॥७६ ज्ञायन्ते न यथाऽसंख्या ऊर्मयः सागरे घने। धारा खानणे तारास्तथा श्रीजिनसहगणाः ॥७७ अनन्तगुणसम्पूर्णान् पञ्चकल्याणपूजितान् । अनन्तमहिमोपेतान् भज त्वं जिननायकान् ॥७८ अनन्यशरणो यस्तु सेवते तीर्थकारकान् । कुदेवानपि संत्यज्य सः स्यात्ताहग्विधोऽचिरात् ॥७९ गंधोदककी महा वृष्टि होती रहती है। भगवान् विहार करते समय जहां जहां अपने चरण कमल रखते हैं उनके नीचे देवलोग अनेक सुवर्णके कमलोंकी रचना किया करते हैं। चांवल आदिके खेत सब फलोंसे नम्रीभूत हुए (नवे हुए ) शोभायमान रहते हैं । आकाश सदा निर्मल रहता है। दिशाएं भी सब निर्मल रहती हैं उनमें कभी अंधकार नहीं होता। इन्द्रकी आज्ञासे देवलोग सदा आह्वान करते रहते हैं-~बुलाते रहते हैं। देदीप्यमान रत्न और सुवर्णका बना हुआ एक हजार आरोंसे सुशोभित और अत्यंत देदीप्यमान धर्मचक्र सदा तीर्थंकर भगवान्के आगे रहता है। ये भगवान्के महागुणरूप चौदह अतिशय देवकृत होते हैं। इस प्रकार भगवान्के चौतीस उत्तम अतिशय होते हैं ॥६३-७०।। भगवान्के समीप ही अशोक महावृक्ष रहता है, अनेक गुणोंसे सुशोभित अनेक प्रकारको पुष्पवृष्टि होती रहती है, उपमा रहित भगवान्की दिव्यध्वनि खिरती रहती है, देवलोग चौसठ चमर सदा ढोरते रहते हैं, भगवान् सुन्दर तीन सिंहासनपर विराजमान रहते हैं, उनके पीछे देदीप्यमान भामंडल रहता है, देवोंके द्वारा साढ़े बारह करोड़ दुंदुभी बाजे सदा बजते रहते हैं और उनके मस्तकके ऊपर सफेद तीन छत्र सदा फिरा करते हैं ॥७१-७३|| इस प्रकार देवोंके द्वारा किये हुए इन आठ प्रातिहार्योंसे भगवान् सदा सुशोभित रहते हैं । इनके सिवाय अनंत ज्ञान ( केवलज्ञान ), अनंत दर्शन ( केवल दर्शन ), अनत महावीर्य और जो वाणीसे भी नहीं कहा जा सके ऐसा अनंत सुख ये चार अनंत चतुष्टय भगवान्के होते हैं। इस प्रकार भगवान् अरहंतदेवके सब गुण मिलाकर छयालीस होते हैं ।।७४-७५।। इसके सिवाय भी भगवान् जिनेंद्रदेवमें अनंत गुण रहते हैं जिन्हें मुनिराज ही जान सकते हैं ॥७६।। जिस प्रकार महासागरकी लहरें गिनी नहीं जा सकतीं, जिस प्रकार बादलोंकी धारा गिनी नहीं जा सकती और जिस प्रकार आकाशमें तारामोंकी संख्या नहीं हो सकती उसी प्रकार भगवान् जिनेन्द्र देवके गुणोंकी संख्या भी कभी नहीं हो सकती ॥७७।। हे भव्यजीव ! भगवान् जिनेन्द्रदेव अनंत गुणोंसे परिपूर्ण हैं, पंच कल्याणकोंसे पूज्य हैं और अनंत महिमासहित विराजमान हैं इसलिये तू उन्हींको सेवाभक्ति कर 1७८॥ जो बीच कुदेवोंको छोड़कर भगवान् तीर्थंकर परमदेवको ही एक अद्वितीय शरण मानकर उनकी सेवा भक्ति करता है वह उन्हीं जैसा परमात्मा हो जाता है ॥७९॥ Jain Education in Cational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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