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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार आपद्गताञ्जनान्सर्वानुद्धरेच्च स्वशक्तितः । जैनान्विशेषतो भक्त्या दयावान्दातकुञ्जरः ॥१९२ इहामुत्र दयान्तिः करणो वल्लभो भवेत् । दयारिक्तस्तु सर्वत्र भुवो भारायते जनः ।।१९३ बिम्यतामङ्गिनां दुःखात्समेषामभयप्रदः । दातृज्येष्ठः कृपाोसौ निभयो लभते सुखम् ॥१९४ पाक्षिको नैष्ठिकश्चाथ गृही कालादिलब्धितः । सामग्रोवशतो दीक्षामेकामादातुमुद्यतः ॥१९५ समर्थाय स्वपुत्राय तदभावेऽन्यजाय वा । यदेतद्दीयते वस्तु स्वीयं तत्सकलं मतम् ॥१९६ परिग्रहविरक्तस्य दानमेतत्प्रजायते । यतस्तदुत्तमं दानं प्रास्यं कस्य नो भवेत् ॥१९७ तृष्णाग्निना ज्वलत्येतज्जगद्वनमशेषतः । परिग्रहपरित्यागघनेनैव प्रशाम्यति ॥१९८ परिग्रहग्रहग्रस्ता भोगभूजेन्द्रक्रिणः । तादृशाः सुखिनो नैव यादृग्दाताऽस्य सर्वदा ॥१९९ त्रिशदध्या गहिणा तस्माद्वाञ्छता हितमात्मनः । दीयतां सकलादत्तिरियं सर्वसुखप्रदा ॥२०० कुलजातिक्रियामन्त्रैः स्वसमाय सधर्मणे । भूकन्याहेमरत्नाऽश्वरथहस्त्यादि निवपेत् ॥२०१ निरन्तरेहया गर्भादीनादिक्रियमन्त्रयोः । वतादेश्व सधर्मेभ्यो दद्यात्कन्यादिकं शुभम् ॥२०२ निस्तारकोत्तमं यज्ञकल्पादिशं बभक्षकम । वरं कन्यादिदानेन सत्कर्वधर्मधारकः ॥२०३ अनुसार दुःख दूर करना चाहिये । उसमें भी जिनधर्मानुयायो पुरुषोंका तो विशेष भक्तिपूर्वक दुःख दूर करना चाहिये ॥१९२॥ जिन भव्यपुरुषोंका हृदय दयासे आर्द्र (भीजा हुआ) है वे पुरुष इस लोकमें तथा परलोक में भी सम्पूर्ण जीवोंके प्रेमपात्र होते हैं और जो लोग दयारहित हैं उन्हें तो मनुष्य रूपमें केवल पृथ्वीको भार देनेवाले कहना चाहिये ॥१९३॥ दुःखोंसे डरनेवाले जीवमात्रको अभयदानका देनेवाला अर्थात् उनके प्राणोंकी रक्षा करनेवाला और जिसका हृदय अत्यन्त दयालु है वह श्रेष्ठदाता निर्भय होकर सुखको प्राप्त करता है ॥१९४॥ कालादिलब्धिकी प्राप्ति रूप सामग्रीके वशसे पाक्षिक गृहस्थ अथवा नैष्ठिक गृहस्थ दीक्षाके ग्रहण करने में प्रयत्नशील होता है ॥१९५।। अब सकलदत्तिका वर्णन करते हैं—सर्व तरह समर्थ अपने पुत्रके लिये अथवा पुत्रके न होनेपर दूसरेसे उत्पन्न होनेवाले (दत्तक ) पुत्रके लिये अपनी धन-धान्यादिसे सम्पूर्ण वस्तुका जो देना है उसे सकलदत्ति कहते हैं ॥१९६॥ यह सकलदत्ति जो पुरुष परिग्रहसे विरक्त है उसीके होती है इसलिये ऐसा कौन होगा जिसे यह उत्तम दान अच्छा न लगेगा किन्तु सभीको अच्छा लगेगा ॥१९७।। यह संसार रूप गहन वन तृष्णा रूप अग्निसे चारों ओर जल रहा है। यह परिग्रहके त्याग रूप मेघसे हो बुझेगा । भावार्थ--जो लोग संसारके नाश करनेकी इच्छा रखते हैं उन्हें संसारके कारण परिग्रहका त्याग करना चाहिये ।।१९८॥ इस परिग्रह रूप पिशाचसे ग्रसित भोगभूमि मनुष्य, इन्द्र तथा चक्रवर्ती उतने सुखी नहीं हैं, जितने सुखी इस सकलदत्तिके देनेवाले हैं ॥१९९।। इसलिये अपने आत्माका हित चाहनेवाले भव्य गृहस्थोंको सम्पूर्ण प्रकारके उत्तम सुखोंके देनेवाली यह सकलदत्ति मन, वचन, कायकी शुद्धिपूर्वक देनी चाहिये ॥२००।। अब समदत्तिका वर्णन करते हैं-कुल, जाति, क्रिया तथा मन्त्रादिसे अपने समान सधर्मी पुरुषोंके लिये पृथ्वो, कन्या, सुवर्ण, रत्न, अश्व, रथ, हस्ति आदि वस्तुएँ देनी चाहिये ॥२०१।। गर्भाधानादि क्रिया, मंत्र तथा व्रतादिके निरन्तर चलनेकी इच्छासे अपने समान सधर्मी पुरुषोंके लिये कन्या, पृथ्वी, सुवर्ण, रत्न, हाथी वगैरह उत्तम वस्तुएँ देनी चाहिये ॥२०२।। संसारके तिरनेके लिये प्रयत्न करनेवालोंमें श्रेष्ठ, प्रतिष्ठादि विधियोंका जाननेवाला तथा बुभुक्षु ऐसे पुरुषोंकोकन्या, सुवर्ण, हाथी, रस, अश्व, पृथ्वी, रत्न आदि उत्तम-उत्तम पदार्थके दानसे सत्कार करनेवाला पवित्र धर्मका धारक कहा जाता है ।।२०३।। जिस दाताने अपनी कुलवतो कन्याका दान दिया है २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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