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________________ श्रावकाचार-संग्रह प्रतीकूलान्सुखीकृत्य यथास्वं दानमानतः । अनुकूलान्स्वसात्कृत्य यजतां सिद्धये जिनम् ॥४६ स्त्रीसङ्गाऽऽहारनीहाराऽऽरम्भादिषु रतो गृही । चर्मादिस्पर्शतो देवान्स्नात्वैवात्सुधौतभृत् ॥४७ स्नानेन प्राणिघातः स्याद्य एवं वक्ति पूजने । स स्वेदादिमलोच्छित्यै स्नायन्मूढो न लज्जते ॥४८ अनेकजन्मजं पापं यद्धन्ति जिनपूजनम् । तदध्यक्षं न कि सिंहो योगजं स शशं न किम् ॥४९ मत्वेति चिकुरान्मृष्ट्वा दन्तानपि गृहव्रती । देशे निर्जन्तुके शुद्धे प्रमृष्टे प्रागुदङ्मुखः ॥५० गालितैनिर्मलैनरैः सन्मन्त्रेण पवित्रितैः । प्रत्यहं जिनपूजार्थं स्नानं कुर्याद्यथाविधि ॥५१ सरितां सरसां वारि यदगाधं भवेत्वचित् । सुवातातापसंस्पृष्टं स्नानाहं तदपि स्मृतम् ॥५२ नभस्वता हतं ग्रावघटीयन्त्रादिताडितम् । तप्तं सूर्यांशुभिर्वाप्यां मुनयः प्रासुकं विदुः ॥५३ यद्यप्यस्ति जलं प्रासु प्रोक्तलक्षणमागमे । तथाप्यतिप्रसङ्गाय स्नायात्तेनाऽद्य नो बुधः ॥५४ इत्थं स्नात्वाऽच्छवस्त्रे द्वे परिधाय च मन्त्रवित् । सकलीकरणाम्भोभिरनुस्नायाऽर्चयेत्सदा ॥५५ जिनानाहूय संस्थाप्य सन्निधीकृत्य पूजयेत् । पुनवसर्जयेन्मन्त्रैः संहितोक्तैर्गुरुक्रमात् ॥५६ १५६ भी है ॥ ४५ ॥ | जिन भगवान्का पूजन करने में किसी तरहका विघ्न न आवे अतः अपने कार्यकी निर्विघ्न सिद्धिके लिये - पूजक पुरुषोंको चाहिये कि जो अपने प्रतिकूल हैं उनका यथा योग्य दान सन्मानादिसे सत्कार करके और जो अनुकूल हैं उन्हें अपने समान करके जिन भगवान्की पूजा करे ||४६|| स्त्रियोंके साथ सम्भोग, आहार, नीहार (शौच ), आरम्भादिमें लगे हुए गृहस्थोंको तथा चर्म आदि अपवित्र वस्तुओंका स्पर्श करने पर स्नान करके और पवित्र वस्त्रको पहन कर जिनदेवकी पूजा करनी चाहिये || ४७|| यदि कोई यह कहे कि - स्नानके करने से तो जीवोंकी हिंसा होती है वह कैसे ठीक कहा जा सकेगा ? ऐसे लोगोंके लिये ग्रन्थकार कहते हैं-पसीना आदि मलके दूर करनेके लिये स्नान करते हुए भी तुम्हें लज्जा नहीं आती! जो स्नान करनेको सदोष कह रहे हो ॥ ४८ ॥ जो जिन भगवान्को पूजा अनेक जन्मोंके पापों का नाश करनेवाली कही जाती है वही पूजा अपने ही निमित्तसे होनेवाले थोड़ेसे पापोंको नाश नहीं करेगा क्या ? अवश्य करेगी। जो सिंह बड़े बड़े गजराजोंको क्षणमात्र में विध्वंस कर डालता है वह क्या शशक ( खरगोश ) को न हनेगा ? अवश्य होगा || ४९ || जिन पूजादि में स्नान करनेको निर्बाध समझ कर — गृहस्थोंको चाहिये कि अपने केश तथा दाँतोंको धोकर पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशाको ओर मुख करके जीवरहित, पवित्र तथा मार्जन (झाड़े) हुए किसी स्थान में - छाने हुए तथा शास्त्रोक्त मन्त्रोंसे पवित्र किये हुए निर्मल जलसे प्रतिदिन जिन पूजाके लिये स्नान करे || ५०-५१ ।। यदि कहीं पर नदी तथा सरोवर (तालाब) आदिका बहुत गहरा जल हो और वह वायु, आताप (सूर्य की किरणादि) से स्पर्श किया हुआ हो तो स्नान करनेके योग्य माना गया है ||५२|| वापिका (बावड़ी ) का जल यदि वायुसे हत हो, पत्थर, घटीयन्त्रादिसे ताड़ित हो तथा सूर्य की किरणोंसे तप्त हुआ हो तो उसे मुनि लोग प्रासुक कहते हैं ||५३ ॥ यद्यपि जलके प्रासुक होने का जो लक्षण कहा है उसी अनुसार वायु, घटीयन्त्र आदिसे हत तथा सूर्य की किरणादिसे स्पर्श किया हुआ जल प्रासुक है परन्तु अति प्रसंग (दुर्व्यवस्था ) न हो जाय इसलिये इस समय वैसे जलसे स्नान नहीं करना चाहिये ॥ ५४॥ मंत्र जानने वाला वह अन्तरीय वस्त्र पहन कर इसके पूजा करे || ५५|| पूजनके समय Jain Education International भव्य पुरुष इस प्रकार स्नान करके और स्वच्छ उत्तरीय तथा बाद फिर सकलीकरणके जलसे स्नान कर सदा जिन भगवान्की जिन भगवान्‌का आह्वानन, संस्थापन तथा सन्निधीकरण करके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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