SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १३३ प्रावृषि द्विदलं त्याज्यं सकलं च पुरातनम् । प्रायशः शाकपत्रं च नाहरेत्सूक्ष्मजन्तुमत् ॥२२ हरिद्राशृङ्गवेरादिकन्दमा त्यजेद्बुधः । मूलं च विशमूल्यादि पत्रं नालीदलादिकम् ॥२३ निम्बकेतकिमुख्यानि कुसुमानि न भक्षयेत् । यतस्तेषु प्रजायन्ते त्रसस्थावरजन्तवः ॥२४ शिम्बयोऽपि न हि ग्राह्यास्ता यतस्त्रसयोनयः । बहुशोऽमृतवल्ल्याधास्त्याज्याश्वानन्तकायकाः ॥२५ अनिष्टानुपसेव्ये ये ते चात्र वतयेत्सदा । अग्राह्यवस्तुनि त्यागो यतो हि भवति व्रतम् ॥२६ भोगोपभोगसम्बन्धे स्थावराणां वधो भवेत् । तस्मादल्पीकृते तस्मिन्नल्पस्थावरहिसनम् ॥२७ स्नानसद्गन्धमाल्यादावाहारे बहुभेदजे । प्रमाणं क्रियते यत्तु तद्भोगपरिमाणकम् ॥२८ वस्त्राभरणयानादौ वनिताशयनासने । विधीयते प्रमाणं तत्परिमाणप्रमाणकम् ॥२९ सचित्तं तस्य सम्बन्ध सन्मिश्राभिषवौ तथा । दुःपक्कभोजनं चैते मलाः पञ्च भवन्ति हि ॥३० गुणैर्युक्तं व्रतं विद्धि गुणवतमितित्रयम् । इदानीं शृणु भव्याग्र ! शिक्षाबतचतुष्टयम् ॥३१ यस्माच्छिक्षाप्रधानानि तानि शिक्षाव्रतानि वै । चत्वार्याश्रयतात्पौरप्रतिमाभ्यासहेतवे ॥३२ देशावकाशिक नाम ततः सामायिकं व्रतम् । तत्प्रोषधोपवासोऽन्यदतिथेः संविभागकम ॥३३ धान्यकी दो दालें होती हैं उसे नहीं खाना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।।२१।। वर्षा कालमें सम्पूर्ण द्विदल धान्य मूंग, चना, उड़द, अरहर, आदि तथा पुराना धान्य नहीं खाना चाहिये। क्योंकि वर्षा समयमें बहुधा करके इनमें जीव पैदा हो जाते हैं। इसी तरह पत्रों वाला शाक भी नहीं खाना चाहिये। क्योंकि इसमें भी त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।।२२।। बुद्धिमान् पुरुषोंको हल्दी, अर्द्रक आदि गीला कन्द, पृथ्वीके भीतर होनेवासे सकरकन्द, गाजर तथा कन्द-मूली आदि मूल तथा, पत्र कमल नाल आदि जो अभक्ष्य वस्तुएँ हैं उन्हें सर्वथा छोड़ना चाहिये ।।२३।। नीम, केतकी ( केवड़ा ) आदिके फूल भी नहीं खाना चाहिये। क्योंकि इन फूलोंमें अनेक त्रस तथा स्थावर जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥२४॥ शिम्बी भी नहीं खाना चाहिये क्योंकि ये द्वीन्द्रियादित्रस जीवोंकी उत्पत्तिका स्थान हैं और बहुधा करके अमृतवेल आदि वस्तुएँ भी नहीं खानी चाहिये क्योंकि ये भी अनन्तकाय होती हैं ।।२५।। जो वस्तु अनिष्ट है तथा सेवन करनेके योग्य नहीं हैं उन्हें भी छोड़ना चाहिये। क्योंकि जो वस्तु सर्वथा अग्राह्य है उसके त्याग करनेसे व्रत होता है ।।२६।। भोगोपभोग वस्तुओंके सेवनसे स्थावर जीवोंका घात होता है इसलिये भोगोपभोग वस्तु कम करनी चाहिये । क्योंकि इसे कम करनेसे जीवोंकी हिंसा भी कम होगी ॥२७॥ स्नान, गन्ध, माल्य, आहार आदि भेदसे अनेक प्रकार जो भोग्य वस्तु हैं उनमें प्रमाण करनेको भोगपरिमाणव्रत कहते हैं ॥२८॥ वस्त्र, आभरण, वाहन, स्त्री, शय्या, आसन आदि जो उपभोग वस्तु हैं उनमें प्रमाण करनेको परिभोग (उपभोग) परिमाण व्रत कहते हैं ।।२९।। सचित्त भोजन करना, सचित्त पदार्थसे सम्बद्ध भोजन करना, सचित्त वस्तु मिला हुआ भोजन करना, दुःपक्व भोजन करना, अभिषव (गरिष्ठ या पौष्टिक) भोजन करना ये पाँच भोगोपभोग परिमाणवतके अतीचार भोगपरिभोगवती पुरुषको त्यागने चाहिये ॥३०॥ गुण-सहित जो व्रत होते हैं वे गुणव्रत कहलाते हैं । गुणव्रत तीन प्रकार के होते हैं। हे भव्यश्रेष्ठ श्रेणिक ! अब चार प्रकार जो शिक्षाव्रत हैं उसका वर्णन करते हैं उसे तुम सुनो ॥३१॥ शिक्षा जिनमें प्रधान है वे शिक्षाव्रत कहलाते हैं। उनके चार विकल्प हैं। आगेकी प्रतिमाओंका अभ्यास बढ़ाने के अर्थ इन्हें धारण करना चाहिए ॥३२॥ देशावकाशिक शिक्षाव्रत, सामायिक शिक्षाव्रत, प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत, अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रतके भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy