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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १२३ हिस्याः प्राणा द्रव्यभावाः प्रमत्तो हिंसको मतः । प्राणविच्छेदनं हिंसा तत्फलं पापसंग्रहः ॥१७ कषायादिप्रमादानां विजेता प्रथमवती । सदोदयां दयां कुर्यात्पापान्धतमसे रविम् ॥१८ अहिंसावतरक्षायै मूलव्रतविशुद्धये । कुरुते विरति रात्रौ चतुर्भुक्तर्महामनाः ॥१९ दिननालीद्वयादर्वाग्योऽत्त्यनस्तमिक: सकः । तत्परं योऽधमस्तेन त्यक्तं कि रात्रिभोजनम् ॥२० रात्रौ चरन्ति लोकोक्तिरधमा रजनीचराः। तत्र भुक्तिः कृता येन भुक्तं तैस्तेन निश्चितम् ॥२१ अतिसूक्ष्मास्त्रसा यत्र पतन्त्यागत्य भोजने । दीपं पश्यतो भुक्तौ तेऽपि भुक्ता न सन्ति किम् ॥२२ मक्षिका वमनाय स्यात्स्वरभङ्गाय मूर्द्धजः । यूका जलोदरे विष्टिः कुष्ठाय गहकोकिली ॥२३ भुक्तावित्यादिदोषालिनक्तं प्रत्यक्षमीक्ष्यते । वार्ता पापस्य का तत्र वर्ण्यते ज्ञानिभिर्यदि ॥२४ न श्राद्धं दैवतं कर्म स्नानं दानं न चाहुतिः । जायते यत्र किं तत्र नराणां भोक्तुमर्हति ॥२५ बिचार करके हिंसाको उस रीतिसे छोड़ना चाहिये जिससे अपनी को हुई प्रतिज्ञाकी हानि न होने पावे ॥१६।। द्रव्यप्राण और भाव प्राण ये तो हिंस्य (घात करनेके योग्य) होते हैं। प्रमाद करके युक्त पुरुष हिंसक ( जीवोंका मारनेवाला ) होता है। प्राणोंका शरीरसे वियोग होनेको हिंसा कहते हैं और पापका संग्रह हिंसाका फल है ॥१७॥ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय, राज्यकथा, चौरकथा, देशकथा और भोजनकथा ये चार कथा तथा पन्द्रह प्रकार प्रमाद आदिका जोतनवाला प्रथम प्रतिमाका धारक श्रावक पापरूप गाढान्धकारके नाशके लिये अन्धकारके नाश करनेवालो सूर्यको प्रभाके समान उत्तम दयाको कर ॥१८॥ जिन पुरुषोंने अहिंसाणुव्रतको धारण किया है उन्हें चाहिये कि उस व्रतकी रक्षाके लिये और मूल व्रतकी दिनोंदिन विशुद्धि ( निर्मलता ) करनेके लिये रात्रिमें चार प्रकारके आहारका त्याग करें ॥१९।। जो पुरुष दो घटिका दिनके पहले भोजन करते हैं वे रात्रि भोजन त्यांग व्रतके धारक कहे जाते हैं। इसके बाद जो भोजन करनेवाले हैं वे अधम ( नीच ) हैं । ऐसे पुरुष रात्रि भोजनके त्यागी कहे जा सकते हैं क्या ? अर्थात् नहीं कहे जा सकते ॥२०॥ यह बात लोकमें प्रसिद्ध है कि रात्रिके समय में नीच राक्षसादि लोग भ्रमण करते रहते हैं तो जिस पुरुषने रात्रिमें भोजन किया है उसने नियमसे उनके साथ भोजन किया है ।।२१।। रात्रिमें भोजन करते समय दीपकको देखकर उसके प्रकाशसे अनेक छोटे-छोटे जन्तु आकर भोजनमें गिरते रहते हैं तो क्या रात्रिमें भोजन करनेवाले पापी पुरुषोंने उन जीवोंका भक्षण नहीं किया होगा ऐसा कहा जा सकता है ? कभी नहीं। अब यह बात कहते हैं कि रात्रि भोजनसे केवल धर्मका हो घात होता हो सो भो नहीं है किन्तु शरीर सम्बन्धी हानियाँ भी बहुत होती हैं ॥२२॥ रात्रिमें भोजन करते समय मक्खी यदि खानेमें आ जाय तो उससे वमन होता है। यदि केश ( बाल ) खानेम आ जाय तो स्वर भंग हो जाता है। यदि यूक ( जूवाँ ) खाने में आ जाय तो जलोदर आदि रोग उत्पन्न होते हैं। और यदि गृहकोकिली ( विस्मरी-छिपकली ) खानेमें आ जाय तो उससे कोढ़ आदि उत्पन्न होती है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषोंको रात्रिमें भोजन करनेका त्याग करना चाहिये ।।२३।। इस तरह अनेक प्रकारके दोष रात्रिके भोजन करनेसे आँखोंके सामने देखे जाते हैं तो बुद्धिमान् पुरुष उसके पापकी वार्ताका कहाँ तक वर्णन करें ॥२४॥ जब रात्रिमें श्राद्ध, देवकर्म, स्नान, दान और आहुति आदि कर्म नहीं होते हैं तो रात्रिमें क्या मनुष्योंके लिये भोजन योग्य कर्म कहा जा सकेगा? कभी नहीं ॥२५।। जो पुरुष सूर्यके अस्त हो जानेपर भोजन करते हैं उन पापी पुरुषोंको सूर्य-द्रोही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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