SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयोऽधिकारः सदृग्मूलगुणः साम्यकाम्यया शल्यर्जितः । पालयन्नुत्तरगुणान्निर्मलान्ततिको भवेत् ॥१ यैर्युक्तान्यव्रतानीव दुःखदानि व्रतान्यपि । सशल्यानि व्रती तानि हृदो निष्काशयेत्ततः ॥२ गोरसाभावतो नैव गोमान्गोभिर्यथा भुवि । तथा निःशल्यत्वाभावाद्वतैः स्यान्न व्रती जनः ॥३ निःशल्योऽस्ति व्रती सूत्रे सशल्यो व्रतघातकः । मायामिथ्यानिदानाख्यं त्रयं तत्त्यजतु त्रिधा ॥४ तत्राऽणुव्रतसंज्ञानि गुणशिक्षावतानि च । पञ्चत्रिचतुराणीति स्युर्गुणा द्वादशोत्तरे ॥५ विरतिः स्थूलवधादेस्त्रियोगैः करणैस्त्रिधा । अननुमतैर्वा पञ्चाऽहिंसाधणुव्रतानि स्युः ॥६ अहिंसा सत्यकं स्तेयत्यागमब्रह्मवर्जनम् । परिग्रहपरीमाणं पञ्चधाणुव्रतं भवेत् ॥७. त्रसानां रक्षणं स्थूलदृष्टसंकल्पनागसाम् । निःस्वार्थ स्थावराणां च तदहिंसावतं मतम् ॥८ __ सम्यग्दर्शन सहित मूलगुणोंका धारण करनेवाला, माया, मिथ्या और निदान इन तीन प्रकारकी शल्यसे रहित तथा रागद्वेषके नाशकी इच्छासे जो अतोचार रहित उत्तर गुणोंको पालन करता है उसे व्रतिक अर्थात् व्रत प्रतिमाका धारण करनेवाला होता है । जिस तरह अव्रत दुःखके देनेवाले हैं उसी तरह शल्य-सहित व्रत भी दुःखोंको देनवाले होते हैं अतः उन्हें भी हृदयसे निकाल देना चाहिए ॥२॥ जिसके यहाँ दूध दही वगैरह तो नहीं है और गाएँ सैकड़ों बँधी हैं परन्तु वह केवल गायमात्रके होनेसे इस संसारमें गोवाला नहीं कहला सकता, उसी तरह जबतक माया मिथ्या आदि शल्यका अभाव न होगा तबतक चाहे उसके व्रत भले ही हो परन्तु वह व्रती नहीं कहला सकता। इसलिये व्रती पुरुषोंको शल्यके छोड़ने में प्रयत्न करना चाहिए ॥३।जैन शास्त्रोंमें शल्य-रहित पुरुषको 'निशल्यो व्रती' इस लक्षणके अनुसार व्रती (व्रतका धारण करनेवाला ) कहा है । और शल्य-सहित पुरुषको व्रतका घात करनेवाला कहा है। इसलिये माया, मिथ्या और निदान इन शल्योंको मन, वचन और कायसे छोड़ना चाहिये ॥४॥ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस तरह ये बाहर उत्तर गुण समझना चाहिए ॥५॥ स्थूलहिंसा, स्थूलअसत्य, स्थूलचोरी, स्थूलअब्रह्म, स्थूलपरिग्रह इनसे, मन वचन और कायसे न करना, न कराना तथा करनेको अच्छा न कहना, इस तरह विरक्त होनेको पाँच अणुव्रत कहते हैं। तथा सम्मतिको छोड़कर भी अणुव्रत होते हैं । भावार्थ यह है जो गृहवाससे सर्वथा विरक्त हो गये हैं वे तो किसी कार्यमें भी अपनी सम्मति नहीं देते हैं। परन्तु जो गृहादिसे सर्वथा विरक्त नहीं हैं उन्हें पुत्रादिके विवाहादिमें अथवा किसी और गृहकार्यमें सम्मति देनी पड़ती है। जिनका सम्मतिके विना काम ही नहीं चलता उनके सम्मतिके रहनेपर भी अणुव्रत होते ही हैं। अर्थात् नवकोटिसे स्थूल पंच पापोंका त्याग उत्कृष्ट अणुव्रत हैं और छह कोटिसे त्याग मध्यम अणुव्रत हैं। हिंसादि एक पापका स्थूल त्याग जघन्य कोटिमें परिगणित है ॥६।। स्थूल अहिंसा, सत्यका पालना, स्थूल चोरीका त्याग, स्थूल अब्रह्म (परस्त्री ) का त्याग और क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, सोना, चांदी आदि दश प्रकारके परिग्रहका प्रमाण करना ये पांच अणुव्रत कहे जाते हैं ॥७॥ स्थूल-दृष्टि-गोचर होनेवाले और संकल्पपूर्वक अपराध नहीं करनेवाले त्रस जीवोंकी, तथा विना प्रयोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy