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________________ भाषकाचार-संग्रह को धारण करता हुआ निश्चयरत्नत्रयके अभ्याससे चरमगुणस्थानवी योगी होता हुआ प्राणोंको छोड़ कर मुक्त होता है। यह उत्कृष्ट सल्लेखना पक्षका व्याख्यान है। मध्यमाराधनापक्षमेंसमीचीन संवर और निर्जरामें समर्थ रत्नत्रयको भावनामें उपयुक्त होता हुआ इन्द्रादिकपदके अभ्युदयोंका अधिकारी होता है। और जघन्याराधनापक्षमें पञ्च नमस्कार मन्त्रके उच्चारण वा स्मरण पूर्वक प्राणोंको छोड़ कर आठ भवोंमें मुक्त होता है। यह कथन संयतोंकी अपेक्षासे है। श्रावकके पक्षमें-श्रावक मुनिसम्बन्धी लिंगको धारण करता हुआ [समीचीन रत्नत्रयकी भावनामें परिणत होता हुआ पञ्चनमस्कारपूर्वक प्राणोंको छोड़ कर] यथायोग्य अभ्युदयोंका भोगकर योग्यकालमें मुक्त होता है । विशेषार्थ-क्षपक मुनि निश्चयनयसे स्वयं निर्यापकाचार्य होकर और व्यवहारनयसे निर्यापकाचार्यके लिए आत्मसमर्पण कर कषायके समान शरीरको कुश करके निश्चय रत्नत्रयके अभ्याससे चरमगुणस्थानवर्ती योगी होकर प्राणोंका परित्याग कर मुक्त होता है। मध्यमाराधनापक्ष में-समीचीन संवर और निर्जरामें समर्थ रत्नत्रयकी भावनामें उपयुक्त होकर इन्द्रादिकके अभ्युदयोंका अधिकारी होता है । जघन्याराधना पक्षमें-पंच नमस्कार मंत्रके उच्चारण वा स्मरण पूर्वक प्राणोंका परित्याग कर आठ भवके भीतर मुक्त होता है । और श्रावक मुनिलिंग धारण कर समीचीन रत्नत्रयको भावनामें तत्पर होता हुआ पंचनमस्कारपूर्वक प्राणपरित्याग कर यथायोग्य अभ्युदयोंको भोग कर योग्यकालमें मुक्त होता है ॥११०॥ इति अष्टमोऽध्यायः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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