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________________ ८ श्रावकाचार-संग्रह पानं षोढा घनं लेपि ससिक्यं सविपर्ययम् । प्रयोज्य हापयित्वा तत् खरपानं च पूरयेत् ॥५६ शिक्षयेच्चेति तं सेयमन्त्या सल्लेखनायं ते । अतिचारपिशाचेभ्यो रझेनामतिदुर्लभाम् ॥५७ प्रतिपत्तौ सजन्नस्यां मा शंस स्थास्नु जीवितम् । भ्रान्त्या रम्यं बहिर्वस्तु हास्यः को नायुराशिषा।।५८ परीषहभयादाशु मरणे मा मतिं कृथाः । दुःखं सोढा निहत्यंहो ब्रह्म हन्ति मुमूर्षुकः ॥५९ सहपांसुक्रीडितेन स्वं सख्या मानुरञ्जय । ईदृशैबहुशो भुक्तर्मोहदुर्ललितैरलम् ॥६० मा समन्वाहर प्रीतिविशिष्टे कुत्रचित्स्मृतिम् । वासितोऽक्षसुखैरेव बम्भ्रमीति भवे भवी ॥६१ मा कांक्षी विभोगादीन् रोगादीनिव दुःखदान् । वृणोते कालकूटं हि कः प्रसाद्येष्टदेवताम् ।।६२ इति व्रतशिरोरत्नं कृतसंस्कारमुद्वहन् । खरपानक्रमत्यागात् प्रायेऽयमुपवेक्ष्यति ॥६३ एवं निवेद्य संधाय सूरिणा निपुणेक्षिणा । सोऽनुज्ञातोऽखिलाहारं यावज्जीवं त्यजेत्रिधा ॥६४ बढ़ावे ॥५५॥ पेयपदार्थ छह प्रकार हैं अपने विपरीतसे सहित घन, लेपि, तथा ससिक्थ । निर्यापकाचार्य उस पेयाहारको खिलवाकर और त्याग कराकर खरपानको बढ़ावे। विशेषार्थ-पेयाहार ( स्निग्धपान ) के छह भेद हैं-घन, अघन, लेपि, अलेपि, ससिक्थ और असिक्थ । निर्यापकाचार्य परिचारकोंके द्वारा क्षपकके लिये इन छह प्रकारके स्निग्धपानोंको खिलवाकर क्रम क्रमसे उनका भी त्याग कराकर खरपानकी वृद्धि करे । घनपेय-दही आदि पीने योग्य गाढ़ी वस्तु । अघनपेयइमली आदिक फलोंका रस तथा कांजी आदि पतली वस्तु । लेपि हाथोंसे चिपकनेवाली पेय वस्तु । ससिक्थ-कणसहित पेयवस्तु, जैसे छाँछ आदिक । असिक्थ-स्वयमेव पतली पेयवस्तु, जैसे दहीके ऊपरका पानी। खरपान = शुद्ध काँजी और गरमजल ।।५६॥ निर्यापकाचार्य उस क्षपकको वक्ष्यमाण प्रकारसे शिक्षा दे कि हे क्षपक ! तेरी प्रसिद्ध यह सल्लेखना मारणान्तिकी है। अतएव अत्यन्त दुर्लभ इस सल्लेखनाको अतिचार रूपी पिशाचोंसे रक्षा कर ॥५७॥ हे क्षपक ! इस आचार्यादिकों द्वारा की जानेवाली परिचर्याकी विधिमें अथवा महापुरुषों द्वारा प्राप्त गौरव या आदर में आसक्त होता हुआ तूं जीवनको स्थिरतर इच्छा मत कर क्योंकि बाह्य वस्तु भ्रमसे ही सुन्दर होती है तथा चिरजीवी होनेकी आकांक्षासे कौन हँसोका पात्र नहीं होता ? ॥५८॥ हे क्षपक ! असह्य क्षुधा आदिकी वेदनाके भयसे शीघ्र मत्युके विषयमें इच्छाको मत कर, क्योंकि परोषहोंको बिना संक्लेशके सहन करनेवाला व्यक्ति पूर्वोपार्जित कर्मोको नष्ट करता है, तथा कुत्सितविधिसे मरनेका इच्छुक व्यक्ति अपने सम्यग्ज्ञान या मोक्षको नष्ट करता है ॥५९।। हे क्षपक ! बाल्यकालमें जिनके साथ धूलिमें खेल खेले हैं उन मित्रोंसे अपनेको अनुरागयुक्त मत कर। क्योंकि अनेक बार भोगे हुए इस प्रकार मित्रानुरागके स्मरण सम्बन्धी मोहनीय कर्मके परिपाकसे उत्पन्न अनुरागमय परिणामोंसे क्या लाभ है ? ॥६०॥ हे क्षपक ! पूर्वानुभूत किसी अपने प्रिय इन्द्रियविषयमें स्मृतिको बार बार मत कर, क्योंकि इन्द्रियविषयजन्य सुखाने ही आसक्त होता हुआ संसारी संसारमें पुनः पुनः जन्मधारण कर रहा है ।।६१।। हे उपासक ! रोगादिकके समान दुःखदायक भावी भोगादिक इष्ट विषयोंकी इच्छा मत कर, क्योंकि इष्टदेव या देवीको प्रसन्न करके हालाहल विषको कौन मांगेगा ? ||६२।। इस प्रकारसे निरतिचारपालनसे अतिशयरूप संस्कारको प्राप्त सल्लेखनाव्रतरूपी चुडामणि रत्नको धारण करनेवाला यह क्षपक क्रमशः गरम जलका भी त्याग कर देनेसे उपवासके विषयमें प्रवेश करेगा। इस प्रकार सूक्ष्मदृष्टि से विचार करनेवाले निर्यापकाचार्यके द्वारा संघके लिये सूचित करके अनुमतिको प्राप्त हुआ वह क्षपक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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