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________________ श्रावकाचार-संग्रह स्वपाणिपात्र एवात्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥४९ श्रावको वीरचर्याहः प्रतिमातापनादिषु । स्यानाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५० दानशीलोपवासाभिदादपि चतुर्विधः । स्वधर्मः श्रावकैः कृत्यः भवोच्छित्यै यथायथम् ॥५१ प्राणान्तेऽपि न भङ्क्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतम् । प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःख व्रतमङ्गो भवे भवे ॥५२ शोलवान्महतां मान्यः जगतामेकमण्डनम् । स सिद्धः सर्वशीलेषु यः सन्तोषमधिष्ठितः ।।५३ तत्र न्यञ्चति नो विवेकतपनो नाञ्चत्यविद्यातमी, नाप्नोति स्खलितं कृपामृतसरिन्नोदेति दैन्यज्वरः । विस्निह्यन्ति न सम्पदो न दृशमप्यासूत्रयन्त्यापदः, सेव्यं साधुमनस्विनां भजति यः सन्तोषमंहोमुषम् ॥५४ स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मन्दायते तत्र स्वकार्य सः प्रमाद्यति ॥५५ धर्मान्नान्यः सुहृत्पापानान्यः शत्रुः शरीरिणाम् । इति नित्यं स्मरम्न स्यान्नरः संक्लेशगोचरः ॥५६ सल्लेखनां करिष्येऽहं विधिना मारणान्तिकीम् । अवश्यमित्यदः शोलं सन्निदध्यात्सदा हृदि ॥५७ करता है लंगोटी मात्र धारक होता है और मुनिके समान पीछी आदि संयमापकरणको रखता है ।।४८।। यह द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक किसी श्रावकके द्वारा दिये गये भोजनको भलीप्रकार शोधकर अपने हाथरूपी पात्रमें ही खाता है । तथा सभी प्रतिमाओंके धारक श्रावक परस्पर इच्छामि ऐसे शब्दोच्चारणरूप व्यवहारविनयको करते हैं ।।४९|| श्रावक वीरचर्या अर्थात् भ्रामरीवृत्तिसे भोजन करना, दिन में प्रतिमायोग धारण करना और आतापन आदिक योग धारण करना आदि मुनियोंके करने योग्य कार्योंके विषयमें तथा प्रायश्चित्त शास्त्रोंके अध्ययन करनेके विषयमें अधिकारी नहीं है ।।५०॥ श्रावकोंके द्वारा संसारपरिभ्रमणका विनाश करनेके लिए दान देना, शील पालना, उपवास करना तथा अपना धर्म अपनी-अपनी प्रतिमा सम्बन्धी आचरणके अनुसार यथायोग्य किया जाना चाहिये ॥५१॥ पञ्च परमेष्ठी, गुरु या दीक्षागुरुकी साक्षीसे ग्रहण किया हुआ व्रत या प्रतिज्ञा प्राणनाश हो जानेपर भी भङ्ग नहीं करना चाहिये, क्योंकि प्राणनाश केवल मरणसमय ही दुःखकर होता है; परन्तु व्रतभङ्ग भव-भवमें दुःखदायक होता है ॥५२॥ सदाचारी संसारका अद्वितीय भूषण तथा इन्द्रादिकोंके भी माननीय जो मुनि या श्रावक व्यक्ति विषयाभिलाषाके त्याग या संतोष वृत्तिको प्राप्त हुआ वह सर्व शीलोंमें सिद्ध हो चुका ॥५३॥ जो मनुष्य साधुओं और स्वाभिमानियोंके सेवनीय पापनाशक सन्तोषको सेवन करता है उस व्यक्तिमें विवेकरूपी सूर्य अस्त नहीं होता, अज्ञानान्धकाररूपो रात्रि नहीं फैलती, दयारूपी अमृतकी नदी रुकावटको प्राप्त नहीं होती, संपत्तियाँ तथा आपत्तियाँ अपनी दृष्टिको भी नहीं डालती हैं ॥५४॥ श्रावक आत्महितकारक शास्त्रोंके उत्तमरोतिसे स्वाध्यायको करे और बारह भावनाओं या षोडशकारणभावनाओंको भावे, परन्तु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह आत्महितकारक कार्योंमें प्रमाद करता है ।।५५।। प्राणियों का धर्मसे भिन्न शत्रु नहीं है इस प्रकार सदा स्मरण करनेवाला मनुष्य दुःखोंका पात्र नहीं होता है ॥५६॥ मैं शास्त्रोक्त विधिपूर्वक मरण समय होनेवाली सल्लेखनाको अवश्य करूँगा इस प्रकार इस सल्लेखनारूप व्रतको अपने हृदयमें हमेशा तथा अवश्य हो धारण करे । विशेषार्थ-सती = सम्यकप्रकारेण, लेखना = कायकषायकृशीकरणं सल्लेखना। काय और कषायके भलीप्रकार कृश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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