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________________ प्रस्तावना १२५ रामसिंह-दोहापाहड़के रामसिंह रचित होनेमें दो प्रमाण है. एक तो इसकी उपलब्ध दोनों प्रतियोंमें ग्रन्थके अन्दर उनका नाम आता है, दूसरे, एक प्रतिकी सन्धिमें भी उनका नाम आया है। उनके विरुद्ध केवल एक ही बात है कि अन्तिम पद्य में उनका नाम नहीं आया । किन्तु मैं ऊपर लिख आया हूँ कि उपलब्ध प्रति अपनी असली हालतमें नहीं है, और २११ के बाद बहुतसे पद्य बादके मिलाये जान पड़ते हैं । अतः उपलब्ध सामग्रीके आधारपर रामसिंहको ही इसका कर्ता मानना चाहिये। रामसिंह योगीन्दुके बहुत ऋणी हैं, क्योंकि उनके ग्रन्थका एक पञ्चमांश-जैसा कि प्रो० हीरालालजो कहते हैं-परमात्मप्रकाशसे लिया गया है। रामसिंह रहस्यवादके प्रेमी थे, और संभवतः इसीसे प्राचीन ग्रन्थकारोंके पद्योंका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थमें किया है। उनके समयके बारेमें केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जोइन्दु और हेमचन्द्रके मध्यमें वे हुए हैं। श्रुतसागर, ब्रह्मदेव, जयसेन और हेमचन्द्रने उनके दोहापाहुड़से कुछ पद्य उद्धृत किये हैं। दोहापाहुड़ और सावयधम्मदोहामें दो पद्य बिल्कुल समान है। किन्तु एक तो देवसेन सावयधम्मदोहाके कर्ता प्रमाणित नहीं हो सके, दूसरे, प्रक्षेपकोंसे पूर्ण दोहापाहुड़की प्रतिके आधारपर उसकी आलोचना भी नहीं की जा सकती। अतः नई प्रतियाँ मिलनेपर इस समस्यापर विशेष प्रकाश डाला जा सकेगा। अमृताशीति और निजात्माष्टक अमृताशीति-यह एक उपदेशप्रद रचना है। इसमें विभिन्न छन्दोंमें ८२ पद्य हैं और जैनधर्मके अनेक विषयोंको उनमें चर्चा है। हम नहीं जानते कि इसमें सन्धिस्थल सम्पादकने जोड़ा है, या प्रतिमें हीथा ? अन्तिम पद्य में योगीन्द्र शब्द आया है, जो चन्द्रप्रभका विशेषण भी किया जा सकता है। परमात्मप्रकाशके कर्ताके साथ इसका सम्बन्ध जोड़नेके लिये कोई प्रमाण नहीं है । इस रचनामें विद्यानंदि, जटा सिंहनंदि, और अकलंकदेवके भी कुछ पद्य हैं। कुछ पद्य भर्तहरिके शतकत्रयसे मिलते हैं। पद्मप्रभमलधारिदेवने अपनी नियमसारको टीकामें इससे तीनपद्य (नं० ५७.५८, और ५९) उद्धृत किये हैं। उसी टीकाम निम्नलिखित एक अन्य पद्य भी उद्धृत है तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः । तथाहि मुक्त्यङ्गनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं दुर्भावनातिमिरसंहतिचंद्रकीतिम् । संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां या सम्मता भवति संयमिनामजस्रम् ॥ किन्तु यह पद्य अमृताशीतिमें नहीं है। प्रेमीजीका अनुमान है कि सम्भवतः यह पद्य योगीन्द्ररचित कहे जानेवाले अध्यात्मसंदोहका है। निजात्माष्टक-इसकी भाषा प्राकृत है; इसमें स्रग्धरा छन्दमें आठ पद्य है, और उनमें सिद्धपरमेष्ठीका स्वरूप बतलाया है। किसी भी पद्य में रचयिताका नाम नहीं दिया, किन्तु संस्कृतमें रचित अंतिम वाक्यमें योगीन्द्रका नाम आया है। परन्तु परमात्मप्रकाशके कर्ताके साथ इसका सम्बन्ध जोड़नेके लिये यह काफ़ी प्रमाण नहीं है। निष्कर्ष-इस लम्बी चर्चाके बाद हम इस निर्णयपर पहुंचते हैं कि जिस परम्पराके आधारपर योगीन्द्रको उक्त ग्रन्थोंका रचयिता कहा जाता है, वह प्रामाणिक नहीं है। अतः वर्तमानमें परमात्मप्रकाश और योगसार ये दो ही अन्य जोइंदुरचित सिद्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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