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________________ १२२ परमात्मप्रकाश किया जा चुका है । इस ग्रन्थमें जोइन्दु अपना नाम देते हैं और लिखते हैं कि भट्ट प्रभाकरके लिये इस ग्रन्थकी रचना की गई है। तथा श्रतसागर, बालचन्द्र, ब्रह्मदेव और जयसेन जोइन्दुको इस प्रन्थका कर्ता बतलाते हैं। यथार्थमें यह ग्रन्थ जोइन्दुकी रचनाओंमें सबसे उत्कृष्ट है, और इसीके कारण अध्यात्मवेत्ता नामसे उनकी ख्याति है। योगसार परिचय-योगसारका मुख्य विषय भी वही है जो परमात्मप्रकाशका है। इसमें संसारकी प्रत्येक वस्तुसे आत्माको सर्वथा पृथक् अनुभवन करनेका उपदेश दिया गया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि संसारसे भयभीत और मोक्षके लिये उत्सुक प्राणियोंकी आत्माको जगाने के लिये जोगिचन्द साधुने इन दोहोंको रचा है । ग्रन्थकार लिखते हैं कि उनने ग्रन्थको दोहोंमें रचा है, किन्तु उपलब्ध प्रतिमें एक चौपाई और दो सोरठा भी है, इससे अनुमान होता है कि संभवतः प्रतियाँ पूर्ण सुरक्षित नहीं रही हैं। अन्तिम पद्यमें ग्रन्थकर्ताका नाम जोगिचन्द (जोइन्दु = योगीन्दु) का उल्लेख, आरम्भिक मङ्गलाचरणकी सदृशता, मुख्यविषयकी एकता, वर्णनकी शैली, और वाक्य तथा पंक्तियोंकी समानता बतलाती है कि दोनों ग्रन्थ एक ही कर्ता जोइन्दुकी रचनाएं हैं। योगसार माणिकचन्द्रग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हुआ है, किन्तु उसमें अनेक अशुद्धियां हैं। यदि उसके अशुद्ध पाठोंको दृष्टिमें न लाया जाये तो भाषाकी दृष्टिसे भी दोनों ग्रन्थोंमें समानता है। केवल कुछ अन्तर, जो पाठकके हृदयको स्पर्श करते हैं, इस प्रकार है-योगसारमें एक वचनमें प्रायः 'हु' और 'ह' आता है किन्तु परमात्मप्रकाशमें आता है। योगसारमें वर्तमानकालके द्वितीय पुरुष एकवचनमें 'ह' और 'हि' पाया जाता है, किन्तु परमात्मप्रकाशमें केवल 'हिं आता है । पञ्चास्तिकायको टीकामें जयसेन योगसारसे एक पद्य भी उद्धृत किया है। सावयधम्मदोहा परिचय-इस ग्रन्थमें मुख्यतया श्रावकोंके आचार साधारण किन्तु आकर्षक शैलीमें बतलाये गये हैं । उपमाओंने इसके उपदेशोंको रोचक बना दिया है और इस श्रेणीके अन्य ग्रन्थोंके साथ इसकी तुलना करनेपर इसमें पारिभाषिक शब्दोंकी कमी पाई जाती है । विषय तथा दोहाछंदके आधारपर इसका नाम श्रावकाचारदोहक है। प्रारम्भके शब्दोंके आधारपर इसे नव ( नौ ) कार श्रावकाचार भी कहते हैं । प्रो० हीरालालजीने बहुत कुछ ऊहापोहके बाद इसका नाम सावयषम्मदोहा रक्खा है। इसका कर्ता-जोइन्दु सम्बन्धो अपने लेखमें मेंने बतलाया था कि जोगेन्द्र, देवसेनी और लक्ष्मीचन्द्र या लक्ष्मीधरको इसका कर्ता कहा जाता है, उसके बाद इसकी लगभग नौ प्रतियाँ प्रकाशमें आई हैं। अपनी प्रस्तावनामें इसके कर्ताके सम्बन्धमें प्रो० हीरालालजीने विस्तारसे विचार किया है किन्तु उनका दृष्टिकोण किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः उसपर विचार करना आवश्यक है। जोइन्दु-जोइन्दुको इसका कर्ता दो आधारपर माना जाता है, एक तो परम्परागत सूचियोंमें जोइन्दुको इसका कर्ता लिखा है, दूसरे 'अ' प्रतिके अन्तमें इसे 'जोगेन्द्रकृत' बतलाया है, और 'भ' प्रतिके एक पूरक पद्य में योगीन्द्रदेवके साथ इसका नाता जोड़ा गया है। जोगेन्द्र और योगीन्द्रसे परमात्मप्रकाशके कर्ताका ही आशय मालूम होता है। किन्तु परमात्मप्रकाश और योगसारकी तरह इस ग्रन्थमें जोइन्दु ने अपना नाम नहीं दिया; दूसरे, जोइन्दुके उन्नत आध्यात्मिक विचारोंका दिग्दर्शन भी इसमें नहीं होता, तथा श्रावकाचारके मुख्य विषयकी तान रहस्यवादी जोइन्दुके स्वरसे मेल नहीं खाती। तीसरे, प्रो० हीरालालजीके मतसे जोइन्दुको अन्य रचनाओंकी अपेक्षा इसकी कविता अधिक गहन है तथा उनका यह भी कहना है कि यह जोइन्दुकी वावस्थाकी रचना नहीं है । चौथे, कुछ सामान्य विचारोंके सिवा, इसमें और परमात्मप्रकाशमें कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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