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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकहै-उपकारक होनेसे' तथा 'यह मेरे लिये अनिष्ट है-अपकारक होनेसे ।' ऐसे विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कार, जिन्हें वासना भी कहते हैं-इस जीवके हुआ करते हैं । अतः ये सुख-दुःख विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कारमात्र ही हैं, स्वाभाविक नहीं। ये सुख-दुःख उन्होंको होते हैं, जो देहको हो आत्मा माने रहते हैं। ऐसा ही कथन अन्यत्र भी पाया जाता है-"मंचांगं"।
अर्थ-इस श्लोकमें दम्पतियुगलके वार्तालापका उल्लेख कर यह बतलाया गया है कि वे विषय जो पहिले अच्छे मालूम होते थे, वे ही मनके दुःखी होनेपर बुरे मालूम होते हैं। घटना इस प्रकार है-पति-पत्नी दोनों परस्परमें सुख मान, लेटे हुए थे कि पति किसी कारणसे चिंतित हो मया । पत्नी पतिसे आलिंगन करनेकी इच्छासे अंगोंको चलाने और रागयुक्त वचनालाप करने लगी। किन्तु पति जो कि चिंतित था, कहने लगा "मेरे अंगों को छोड़, तू मुझे संताप पैदा करनेवाली है। हट जा। तेरी इन क्रियाओंसे मेरी छातीमें पीड़ा होती है। दूर हो जा। मुझे तेरी चेष्टाओंसे बिलकुल ही आनन्द या हर्ष नहीं होरहा है।" "रम्यं हयं"।
रमणीक महल, चन्दन, चन्द्रमाकी किरणें (चाँदनी ), वेणु, वीणा तथा यौवनवती युवतियाँ ( स्त्रियाँ ) आदि योग्य पदार्थ भूख-प्याससे सताये हुए व्यक्तियोंको अच्छे नहीं लगते । ठीक भी है, अरे! सारे ठाटबाट सेरभर चावलोंके रहनेपर ही हो सकते हैं । अर्थात् पेटभर खानेके लिए यदि अन्न मौजूद है, तब तो सभी कुछ अच्छा ही अच्छा लगता है । अन्यथा ( यदि भरपेट खानेको न हुआ तो ) सुन्दर एवं मनोहर गिने जानेवाले पदार्थ भी बुरे लगते हैं । इसी तरह और भी कहा है
"एक पक्षी (चिरबा) जो कि अपनी प्यारी चिरैयाके साथ रह रहा था, उसे धूपमें रहते हुए भी संतोष और सुख मालूम देता था। रातके समय जब वह अपनी चिरैयासे बिछुड़ गया, तब शीतल किरणवाले चन्द्रमाकी किरणोंको भी सहन (बरदाश्त ) न कर सका। उसे चिरैयाके वियोगमें चन्द्रमाकी ठंडी किरणें सन्ताप व दुःख देनेवाली ही प्रतीत होने लगीं। ठीक ही है, मनके दुःखी होनेपर सभी कुछ असह्य हो जाता है, कुछ भी भला या अच्छा नहीं मालूम होता।"
इन सबसे मालूम पड़ता है कि इन्द्रियोंसे पैदा होने वाला सुख वासनमात्र ही है। आत्माका स्वाभाविक एवं अनाकुलतारूप सुख वासनामात्र नहीं है, वह तो वास्तविक है। यदि इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्र-विभ्रमजन्य न होता, तो संसारमें जो पदार्थ सुखके पैदा करनेवाले माने गये हैं, वे ही दुःखके कारण कैसे हो जाते ? अतः निष्कर्ष निकला कि देहधारियोंका सुख केवल काल्पनिक ही है और इसी प्रकार उनका दुःख भी काल्पनिक है ।। ६ ।।
दोहा-विषयी सुख दुःख मानते, है अज्ञान प्रसाद ।
___भोग रोगवत् कष्टमें, तन मन करत विषाद ॥ ६॥ शंका-ऐसा सुन शिष्य पुनः कहने लगा कि “यदि ये सुख और दुःख वासनामात्र ही हैं, तो वे लोगोंको उसी रूपमें क्यों नहीं मालूम पड़ते हैं ? आचार्य समझाते हुए बोले
मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते नहि ।
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ॥७॥ अन्वय-हि मोहेन संवृतं ज्ञानं तथैव स्वभावं न लभते, यथा मदनकोद्वैः मत्तः पुमान् पदार्थानां स्वभावं न लभते ।
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