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अन्तिम प्रशस्ति
मूल
आज उनका पार्थिव देह हमारे बीच नहीं है मगर उनका अक्षरदेह तो सदा के लिये अमर है । उनके पत्रों तथा लेखोंका संग्रह गुर्जरभाषा में 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थ में प्रकाशित हो चुका है (जिसका हिन्दी अनुवाद भी प्रकट हो चुका है) वही मुमुक्षुओं के लिये मार्गदर्शक और अवलम्बनरूप है। एक-एक पत्र में कोई अपूर्व रहस्य भरा हुआ है । उसका मर्म समझने के लिये सन्तसमागमकी विशेष आवश्यकता है । इन पत्रों में श्रीमद्जीका पारमार्थिक जीवन जहाँ-तहाँ दृष्टिगोचर होता है। इसके अलावा उनके जीवनके अनेक प्रेरक प्रसंग जानने योग्य है, जिसका विशद वर्णन श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम प्रकाशित 'श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला' में किया हुआ है (जिसका हिन्दी अनुवाद भी प्रकट हो चुका है) । यहाँपर तो स्थानाभावसे उस महान विभूतिके जीवनका विहंगावलोकनमात्र किया गया है ।
श्रीमद् लघुराजस्वामी (श्री प्रभुश्रीजी) 'श्री सद्गुरुप्रसाद' ग्रन्थकी प्रस्तावना में श्रीमद् के प्रति अपना हृदयोद्गार इन शब्दोंमें प्रकट करते हैं- “ अपरमार्थ में परमार्थके दृढ़ आग्रहरूप अनेक सूक्ष्म भूलभूलैयाँके प्रसंग दिखाकर, इस दासके दोष दूर करनेमें इन आप्त पुरुषका परम सत्संग और उत्तम बोध प्रबल उपकारक बने हैं''''संजीवनी औषध समान मृतको जीवित करें, ऐसे उनके प्रबल पुरुषार्थ जागृत करनेवाले वचनोंका माहात्म्य विशेष- विशेष भास्यमान होनेके साथ ठेठ मोक्षमें ले जाय ऐसी सम्यक् समझ (दर्शन) उस पुरुष और उनके बोधकी प्रतीतिसे प्राप्त होती है; वे इस दुषम कलिकालमें आश्चर्यकारी अवलम्बन हैं । परम माहात्म्यवन्त सद्गुरु श्रीमद् राजचन्द्रदेवके वचनोंमें तल्लीनता, श्रद्धा जिसे प्राप्त हुई हैं या होगी उसका महद् भाग्य है । वह भव्य जीव अल्पकालमें मोक्ष पाने योग्य है ।"
ऐसे महात्माको हमारे अगणित वन्दन हों !
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