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________________ ( १३ ) है । वतराग मार्ग में आबालवृद्धको रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसके बीजका हृदयमें रोपण हो, इस हेतुसे इसकी बाला बोधरूप योजना को है ।” श्री कुन्दकुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थकी मूल गाथाओंका श्रीमद्जीने अविकल ( अक्षरशः ) गुजराती अनुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था पर वह अपूर्ण रह गया है । फिर भी इतने से, श्रीमद्जीकी विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल आ जाता 1 सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने-समझाने में श्रीमद्जीकी निपुणता अजोड़ थी । मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जीकी दृष्टि बड़ी विशाल थी । वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धा के कट्टर विरोधी थे । वे मतमतान्तर और कदाग्रहादिसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था । उन्होंने आत्मधर्मका ही उपदेश दिया । इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । श्रीमद्जी लिखते हैं " मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना ।" ( पुष्पमाला - १४) " तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहने का तात्पर्य यही कि जिस मार्ग से संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर ।" ( पुष्पमाला - १५) " दुनिया मतभेदके बन्धन से तत्त्व नहीं पा सकी ।" ( पत्रांक २७) "जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है "मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा । " ( पत्रांक ३७ ) श्रीमद्जीने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंकी वाणीको जहाँ-तहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव (तत्त्वप्राप्ति के योग्य आत्मा) कहा है । फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है " श्रीमान वीतराग भगवानोंने जिसका अर्थ निश्चित किया है, जो अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखोंका निःसंशय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप सर्वोत्कृष्ट शाश्वत है वह धर्म जयवन्त रहे, त्रिकाल जयवन्त रहे । उन श्रीमान् अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है ।" (पत्रांक ८४३) परम वीतरागदशा श्रीमद्जीकी परम विदेही दशा थी । वे लिखते हैं "एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसम्पत्ति के सिवाय हमें कुछ रुचिकर नहीं लगता; हमें किसी पदार्थ में रुचिमात्र रही नहीं है ""हम देहधारी हैं या नहीं - यह याद करते हैं तब मुश्केलीसे जान पाते हैं ।" ( पत्रांक २५५) "देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योंकि हम भी अवश्य उसी स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डतासे कहता हैं और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है ।" ( पत्रांक ३३४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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