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एक अन्य पत्रमें लिखते हैं--"कितने ही निर्णयोंसे में यह मानता हूँ कि इस कालमें भी कोई-कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणज्ञानसे जान सकते हैं; यह जानना कल्पित नहीं किन्तु सम्यक् (यथार्थ) होता है ! उत्कृष्ट संवेग, ज्ञानयोग और सत्संगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवमें आ जाता है। जब तक पूर्वभव अनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालके लिये सशंकित धर्मप्रयत्न किया करता है; और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता।" (पत्रांक ६४) अवधान-प्रयोग, स्पर्शनशक्ति
वि० सं० १९४० से श्रीमद्जी अवधान-प्रयोग करने लगे थे। धीरे-धीरे वे 'शतावधान तक पहुँच गये थे । जामनगरमें बारह और सोलह अवधान करनेपर उन्हें 'हिन्दका हीरा' ऐसा उपनाम मिला था। वि० सं० १९४३ में १९ वर्षकी उम्रमें उन्होंने बम्बईकी एक सार्वजनिक सभामें डॉ० पिटर्सनकी अध्यक्षतामें शतावधानका प्रयोग दिखाकर बडे-बड़े लोगोंको आश्चर्यमें डाल दिया था। उस समय उपस्थित जनताने उन्हें 'सुवर्णचन्द्रक' प्रदान किया था और 'साक्षात् सरस्वती की उपाधिसे सम्मानित किया था।
. श्रीमद्जीकी स्पर्शनशक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी। उपरोक्त सभामें उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकारके बारह ग्रन्थ दिये गये और उनके नाम भी उन्हें पढ़कर सुना दिये गये। बादमें उनकी आँखोंपर पट्टी बाँधकर जो-जो ग्रन्थ उनके हाथपर रखे गये उन सब ग्रन्थोंके नाम हाथोंसे टटोलकर उन्होंने बता दिये। श्रीमद्जीकी इस अद्भुत शक्तिसे प्रभावित होकर तत्कालीन बम्बई हाईकोर्टके मुख्य न्यायाधीश सर
वहाँ अपनी शक्तियाँ प्रदर्शित करनेका अनुरोध किया, परन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्हें कीत्तिकी इच्छा न थी, बल्कि ऐसी प्रवत्ति आत्मोन्नतिमें बाधक और सन्मार्गरोधक प्रतीत होनेसे प्रायः बीस वर्षकी उनके बाद उन्होंने अवधान-प्रयोग नहीं किये। महात्मा गांधीने कहा था
महात्मा गांधीजी श्रीमदजीको धर्मके सम्बन्धमें अपना मार्गदर्शक मानते थे । वे लिखते हैं
"मुझपर तीम पुरुषोंने गहरा प्रभाव डाला है-टाल्सटॉय, रस्किन और रायचन्दभाई । टाल्सटॉयने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े पत्रव्यवहारसे, रस्किनने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दि लास्ट' से-जिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा है, और रायचन्दभाईने अपने गाढ़ परिचयसे । जब मुझे हिन्दुधर्ममें शंका पैदा हुई उस समय उसके निबारण करने में मदद करनेवाले रायचन्दभाई थे...
जो वैराग्य (अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?) इस काव्यको कड़ियोंमें झलक रहा है वह मैंने उनके . दो वर्षके गाढ़ परिचयमें प्रतिक्षण उनमें देखा है। उनके लेखोंमें एक असाधारणता यह है कि उन्होंने जो अनुभव
१. शतावधान अर्थात् सौ कामोंको एक साथ करना । जैसे शतरंज खेलते जाना, मालाके मनके गिनते जाना,
जोड़ बाकी गुणाकार एवं भागाकार मनमें गिनते जाना, आठ नई समस्याओंकी पूर्ति करना, सोलह निर्दिष्ट नये विषयोंपर निर्दिष्ट छन्दमें कविता करते जाना, सोलह भाषाओंके अनुक्रमविहीन चारसी शब्द कर्ताकर्मसहित पुनः अनुक्रमबद्ध कह सुनाना, कतिपय अलंकारोंका विचार, दो कोठोंमें लिखे हए उल्टे-सीधे अक्षरोंसे कविता करते जाना इत्यादि । एक जगह ऊँचे आसनपर बैठकर इन सब कामोंमें मन और दृष्टिको प्रेरित करना, लिखना नहीं या दुबारा पूछना नहीं और सभी स्मरणमें रखकर इन सौ कामोंको पूर्ण करना । श्रीमद्जी लिखते हैं-"अवधान आत्मशक्तिका कार्य है यह मुझे स्वानुभवसे प्रतीत हुआ है।" (पत्रांक १८)
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