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पादलिप्तसूरि-कथानक
कत्थ भो वसही
वंदण - कण तस्सेव सूरिणो केइ सावयाऽपुव्वा । ते वियतं पुच्छंति [ पालित्तं ] पालित्तयस्स पहुणो विन्नाया तेण ते उ सड्ड त्ि तो तेण वसहि-मग्गो कहिओ ताणं भमाडेणं जाए आगच्छंती तावासन्त्रेण गंतुमग्गेण । संवट्टिऊण य पडं उवविट्ठो आसणे सूरी तो ते सड्ढा पत्ता वंदिय पुच्छेवि सुह-विहाराई । उवविट्ठा सूरीणं पुरओ विन्नाय त [ 17. B]च्चेट्ठा
विम्हिय-मणसा कह तं चरियं डिंभयाण मज्झयारम्मि । कह एरिसं पहुत्तं इय नाउं सूरिणा भावं
भणिया ते भो एवं बालत्तण- चिट्ठियं न कोट्ठम्मि । पारिज्जइ छोढुं किंच चंचलं माणसं एयं
कहमन्नहा उ परिणय- वयाण तुम्हाण सव्वया नेय । निव्वहइ निओ धम्मो सुनिक्कलंको तओ भणह मा मा एयं चोज्जं मन्नह ते वि य विन्नाय - भावा हि-मणा किच्चिर- कालं गया ठाणे
पुण पालित्तयसूरी कयाइ पेच्छेवि जंत-सगड-भरं । उप्पन्न - रमण-वंछो निव्विजणं कलिय तो गंतुं
डिं| 18. A] भेहि समं कीलइ गड्डी-पिंघेसु चडइ ओयरइ । तावागंतुं केहि वि अपुव्व - पुरिसेहिं ते डिंभा
पुट्ठा भो कत्थऽच्छइ पालित्तय पंडियस्स वसहि त्ति । लक्खित्ता तो सूरी केइ विउस त्ति तह भणियं
२. तओ सद्दत्ति ।
३. भाव
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