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________________ ४७ भूमिका काल-परिमाण आदि बातों का ज्ञान हो सकता है। आठवां भूमिकर्म नामक अध्याय ३० पटलों में विभक्त है और उनमें महत्त्व की सामग्री है । आसनों का उल्लेख करते हुए उनके कई प्रकार बताये गये हैं, जैसे सस्ते (समग्घ), मंहगे ( महग्घ), और औसत मूल्य के (तुल्लग्घ), टिकाऊ रूप से एक स्थान में जमाए हुए (एकट्ठान), इच्छानुसार कहीं भी रखे जाने वाले (चलित), दुर्बल और बली अर्थात् सुकुमार बने हुए या बहुत भारी या संगीन । आसनों के भेद गिनाते हुए कहा है पर्यंक, फलक, काष्ठ, पीढ़िका या पिढ़िया, आसन्दक या कुर्सी, फलकी, भिसी या बृसी अर्थात्, चटाई, चिफलक या वस्त्रविशेष का बना हुआ आसन, मंचक या माँचा, मसूरक अर्थात् कपड़े या चमड़े का चपटा गोल आसन, भद्रासन अर्थात् पायेदार चौकी जिसमें पीठ भी लगी होती थी पीढग या पीढ़ा, काष्ठ खोड़ या लकड़ी का बना हुआ बड़ा पेटीनुमा आसन । इसके अतिरिक्त पुष्प, फल, बीज, शाखा, भूमि, तृण, लोहा, हाथीदांत से बने आसनों का भी उल्लेख है । उत्पल का अर्थ संभवतः पद्मासन था । एक विशेष प्रकार के आसन को नहट्टिका लिखा है, जिसका अभिप्राय गेंडे, हाथी आदि के नख की हड्डियों से बनाया जाने वाला आसन था (पृष्ठ १५) । पृष्ठ १७ पर पुनः आसनों की एक सूची है, जिसमें आस्तरक या चादर, प्रवेणी या बिछावन और कम्बल के उल्लेख के अतिरिक्त खट्वा, फलकी, डिप्फर (अर्थ अज्ञात), खेडु खंड (संभवतः क्रीड़ा या खेल तमाशे के समय काम में आने वाला आसन), समंथणी ( अर्थ अज्ञात) आदि का उल्लेख है । कुषाणकालीन मूर्तियों में जो मथुरा से प्राप्त हुई हैं, यक्ष, कुबेर या साधु आदि अपनी टांग या पेट के चारों ओर वस्त्र बांध कर बैठे हुए दिखाए जाते हैं । उसे उस समय की भाषा में पल्हत्थिया ( पलौथी) कहते थे । ये दो प्रकार की होती थीं, समग्र पल्हत्थिया या पूरी पलथी और अर्ध पलत्थिया या आधी पलथी । आधी पलथी दक्षिण और वाम अर्थात् दाहिना पैर या बाँया पैर मोड़ने से दो प्रकार की होती थी । मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित सी ३ संख्यक कुबेर की विशिष्ट मूर्ति वाम अर्ध पल्हत्थिया आसन में बैठी हुई है । पलथी लगाने के लिए साटक, बाहुपट्ट, चर्मपट्ट, वल्कलपट्ट, सूत्र, रज्जु आदि से बंधन बांधा जाता था । मध्यकालीन कायबन्धन या पटकों की भाँति ये पल्लत्थिकापट्ट रंगीन, चित्रित अथवा सुवर्ण - रत्न- मणिमुक्ता खचित भी बनाये जाते थे (पृ० १९) । केवल बाहुओं को टांगों के चारों ओर लपेट कर भी बाहु-पल्लत्थिका नामक आसन लगाया जाता था । नववें पटल में अपस्सय या अपाश्रय का वर्णन है । इस शब्द का अर्थ आश्रय या आधार स्वरूप वस्तुओं से है । शय्या, आसन, यान, कुड्य, द्वार, खंभ, वृक्ष आदि अपाश्रयों का वर्णन किया गया है । इसी प्रकरण में कई आसनों के नाम हैं, जैसे आसंदक, भद्रपीठ, डिप्फर, फलकी, बृसी, काष्ठमय पीढा, तृणपीढा, मिट्टी का पीढा, छगणपीढग (गोबर से लिपा- पुता पीढ़ा ) । कहा है कि शयन, आसन, पल्लंक, मंच, मासालक (मसारक), मंचिका, खट्वा, सेज-ये शयन सम्बन्धी अपाश्रय हैं। ऐसे ही सीया, आसंदणा, जाणक, घोलि, गल्लिका (मुंडा गाड़ी के लिए राजस्थानी में प्रचलित शब्द गल्ली), सग्गड़, सगड़ी नामक यान सम्बन्धी अपाश्रय हैं । किडिका (खिड़की), दारुकपाट (दरवाजा), ह्रस्वावरण (छोटा पल्ला ), लिपी हुई भींत, बिना लिपी हुई भींत, वस्त्र की भींत या पर्दा (चेलिम कुड्ड), फलकमय कुड्य (लकड़ी के तख्तों से बनी हुई भींत), अथवा जिसके केवल पार्श्व में तखते लगे हों और अन्दर गारे आदि का काम हो (फलकपासित कुड्ड) ये भींत सम्बन्धी अपाश्रय हैं । पत्थर का खम्भा (पाहाण खंभ), धन्नी (गृहस्य धारिणी धरणी), प्लक्ष का खंभ (पिलक्खक थंभ), नाव का गुनरखा (णावाखंभ), छाया खंभ, झाड़फानूस (दीवरुक्ख या दीपवृक्ष), यष्टि (लट्ठी), उदकयष्टि (दग लट्ठी)ये स्तम्भ सम्बन्धी अपाश्रय हैं । पिटार ( पडल), कोथली (कोत्थकापल), मंजूषा, काष्ठभाजन — ये भाजन सम्बन्धी अपाश्रय हैं ( पृ० २७) । इसी प्रकरण में कई प्रकार की कुड्या या दीवारों का उल्लेख आया है; जैसे, रगड़कर चिकनी दीवार (मट्ठ), चित्रयुक्त भित्ति (चित्त), चटाई से (कडित), या फूस से बनी हुई दीवार (तणकुड्ड), या सरकंडे आदि की तीलिओं से बनी हुई दीवार, कणगपासित (जिसके पार्श्वभाग में कणग या तीलियाँ लगी हुई हों) । किन्तु Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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