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________________ जैन आगम साहित्य में कथाओं के प्रकार के अन्तर्गत नमिराजा और इन्द्र का संवाद, हरिकेशीय अध्ययन के अन्तर्गत चाण्डाल कुलोत्पन्न श्रमण हरिकेश और वेदानुयायी ब्राह्मण का स वाद, इक्षुकारीय अध्ययन के अन्तर्गत, पिता-पुत्र का सवाद, मृगापुत्रीय अध्ययन के अन्तर्गत श्रमण-दीक्षा के अभिलाषी मृगापुत्र का अपने माता-पिता से सवाद, केशी-गौतमीय अध्ययन के अन्तर्गत केशी और गौतम के संवाद द्वारा सदा स यम में स्थिर रहने का उपदेश दिया गया है । उत्तराध्ययन की भांति दशवकालिक सूत्र भी प्राचीन होने के कारण भाषाशास्त्र के अध्ययन की दष्टि से महत्वपूर्ण है । इसकी कतिपय गाथाए आचारांग सूत्र से मिलती हैं । बौद्धों के प्राचीन सूत्रों के साथ भी समानता पाई जाती है । द्रुमपुष्पित अध्ययन में श्रमणों को उपदेश देते हुए कहा है : जैसे भ्रमर पुष्पों को बिना पीडा पहुंचाये उनमें से रस का पान कर अपने आपको तृप्त करता है, वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा में रत रहता मूल आवश्यकसूत्र में नित्यकर्म के प्रतिपादक छह आवश्यक क्रियानुष्ठानों का ही वर्णन इष्ट है, अतएव इसमें कथा-भाग के सम्मिलित किये जाने का प्रश्न नहीं उठता, फिर भी इस मूलसूत्र के लोकप्रिय होने से जितनी व्याख्याएं इस पर लिखी गयीं उतनी अन्य किसी स्त्र पर नहीं । इनमें जिनदासगणि महत्तर (छठी शताब्दी ई.) कृत आवश्यक चूर्णी, तथा हरिभद्रसूरि (८वी शताब्दी ई.) एव मलयगिरि (१२वीं शताब्दी ई.) कृत टीकाएं कथा-प्रकारों के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । इन टीकाओं में अनेक सरस लौकिक एवं धार्मिक कथाएं संग्रहीत हैं जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र भी व्याख्या साहित्य के अन्तर्गत कथा कहानियों की दष्टि से बहुत महत्व का है । वादिवेताल शान्तिसूरि (११ वीं शताब्दी ई.) कृत शिष्यहिता नाम की पाइय-टीका और नेमिचन्द्र सूरि (देवेन्द्रगणि ११ वी शताब्दी ई.) कृत सुखबोधा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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