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कु. रीता बिश्नोई
- सब के विषय में जो आचार संहितायें निर्मित हुइ हैं उनका वर्णन विभिन्न -धर्मग्रन्थों तथा स्मृतिग्रन्थों में पाया जाता है ।
जैन आगमों में भी “आचार" को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है । वह कर्म क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है । कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होने के लिये सम्यग् दर्शन और ज्ञान के साथ चारित्र अर्थात् आचार का होना अनिवार्य है । आचरण के अभाव में मात्र ज्ञान से मुक्तिमार्ग तय नहीं हो पाता इसलिये आचरण को प्रमुख स्थान दिया गया है "आचार ही तीर्थंकरों के प्रवचन का सार है " " वही मुक्ति का प्रधान कारण है। जैनागमों में मुख्य रूप से मुनि ( श्रमण ) और गृहस्थ (श्रावक ) के आचारों का ही विस्तृत वर्णन किया गया है । सभी धर्म एवं सम्प्रदाय एकमत हैं कि धर्म और विद्या आदि को आगे बढ़ाने के लिये समाज में संन्यासी आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है । धर्मशासनकी प्रभावना के लिये मुनिधर्म के आचारों पर विशेष बल दिया जाता है ।
वैदिक धर्म - सूत्रों में यति (संन्यासी) के " आचारों " पर प्रकाश डाला गया है । यहाँ मानव जीवन के चार सोपान (आश्रम) बतलाये गये हैं जिनके • अनुसार आचरण करने पर मनुष्यका जीवन सफल माना जाता है । इन चार आश्रमों के पारिभाषिक नाम इस प्रकार हैं - ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम | वैदिक धर्मसूत्र ग्रन्थों में इन चार आश्रमों के अन्तर्गत "संन्यास आश्रम" में यतिधर्म के स्वरूप एवं आचार आदि वर्णित है ।
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जैन आगमों में अनागार ( मुनि) धर्म अर्थात् श्रमण - श्रमणी के आचार सम्बन्धी संहिता उपलब्ध होती है । जैनागम ग्रन्थों में “दश वैकालिक" के विविक्तचर्या नामक द्वितीय चूलिका में साधु के कुछ कर्तव्याकर्तव्यों का प्रतिपादन किया गया है । आचारांग उत्तराध्ययन और दशवैकालिक में कुछ बातें शब्दतः और कुछ अर्थतः मिलती जुलती हैं ।
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वैदिक धर्म सूत्र ग्रन्थों में तथा जैन आगमों में यतिधर्म के एवं अनागार "धर्म के आचार सम्बन्धी बहुत सी बातें ऐसी हैं जो आपस में बहुत कुछ मिलती जुलती हैं यथा-
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