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________________ वैदिक धर्मसूत्रगत यतिधर्म एवं जैनागमगत अनागारधर्म के आचार की तुलना - कु. रीता बिश्नोई, मुजफ्फरनगर 1 संसार में जितनी भी ज्ञान की शाखायें हैं वे सभी किसी न किसी रूप में आचार अथवा विचार से सम्बद्ध हैं । आचार व विचार एक दूसरे के पूरक हैं । विचारों का क्रियान्वित रूप ही आचार में परिणत होता है अथवा संस्कारों की संहिता ही आचार कहलाती है । भारतीय संस्कृति की अनेक विशेषताओं में: से एक विशेषता - "आचार" भी है। जीवन में आचार का बडा महत्त्वपूर्ण स्थान है अतएव "आचारः परमो धर्मः " " कहा गया है । साधारणतः आचार शब्द का अर्थ होता है आचरण, अनुष्ठान । राग और द्वेष से रहित कर्म ही आचार है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि विचारों अथवा आदर्शो का व्यवहारिक रूप आचार है । आचार की आधारशिला नैतिकता है। नैतिकता का आदर्श जितना अधिक बृहद् होगा उतनी ही उसकी आचार संहिता बलवती होगी । जो आचार नैतिकता पर प्रतिष्ठित नहीं है वह आदर्श आचार नहीं कहा जा सकता । जहाँ दर्शन का सम्बन्ध विचारों से होता है वहाँ धर्म का सम्बन्ध आचार अथवा व्यवहार से होता है । आचार के लिये श्रद्धा की आवश्यकता होती है और धर्म श्रद्धा पर ही अवलम्बित होता है । आचार से ही धर्म की उत्पत्ति कही गयी है 'आचारप्रभवो धर्म:' । भारतीय संस्कृति में आचार ही व्यक्ति की कसोटी है और आचार का स्रोत है विचार, किन्तु विचार सब समय एकसा नहीं होता इसलिये किसी का आचार या आचरण ही स्पष्ट कर देता है कि वह कैसा व्यक्ति है ? आचार ही व्यक्ति को असुर बनाता है अथवा आचार ही व्यक्ति को देव बनाता है । अत: प्राचीन भारतीय आचार्यों ने धर्म एवं दर्शन के साथ-साथ कई रूपों में आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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