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________________ १८४ डा० बशिष्ठ नारायण सिन्हा, वाराणसी कठोपनिषद् में कहा गया है कि आत्मा जन्म-मरण से परे ૧૨ १४ ग्राह्य होता है हैं । वह न जन्म लेता है और न मरता है । न उससे कोई जन्म लेता है । और न वह किसी से जन्म ग्रहण करता है ।" श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा हैं कि जीवात्मा न स्त्री है, न पुरुष और न नपुंसक । वह जिस प्रकार का शरीर धारण करता है वैसा ही हो जाता है । इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है कि आत्मा का वर्णन करने में सभी शब्द निवृत्त पाये जाते हैं । न तर्क उसे समझ पाता है और न बुद्धि ही । उपनिषद् में भी कहा गया है कि आत्मा तक न आँख, न शब्द और न गन पहुँच पाते हैं । १५ १६ १ जीवात्मा न जन्म लेता है और न मरता है तब यह समस्या उठती है कि जिन्हें हम जन्म और मरण कहते हैं वे क्या हैं ? इसका उत्तर हमें वहाँ मिलता हैं जहाँ अन्तरालगति का विवेचन हुआ है । कर्म के अनुसार जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है । शरीर को धारण करना जन्म होता है और शरीर को त्याग देना मृत्यु के रूप में जाना जाता है । औपनिषदिक परम्परा में भी यह माना गया है कि जीव एक शरीर को छोडकर दूसरे शरीर को धारण करता है जिस प्रकार कोई व्यक्ति पुराने वस्त्र को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता हैं ।" इसी के आधार पर पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म होते हैं जिसे जैन एवं वैदिक दोनों ही परम्पराएँ स्वीकार करती हैं । 1 जीव अनन्त चतुष्टय को धारण करता है - अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द एवं अनन्त वीर्य । फिर भी वह कर्म के प्रभाव से बन्धन में आ जाता है / किन्तु अनन्त ज्ञान वाला जीव सर्वप्रथम कब और क्यों कर्म से सम्बन्धित हो गया और बन्धन की परम्परा चल पडी ? इसका कोई स्पष्ट उत्तर जैनागम में नहीं मिलता है । उपनिषद् में भी आत्मा को शुद्ध चैतन्य माना गया है जो बिल्कुल निर्लेप होता है किन्तु माया के कारण वह बन्धन मे आ जाता है । उपनिषद् में यह स्पष्ट नहीं बताया गया है कि शुरू में आत्मा कब माया के वशीभूत हो गया ? फिर भी जैनागम तथा उपनिषद् दोनों ही जीव के बन्धन और मोक्ष पर विचार करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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