SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययनसूत्र में काव्यतत्त्व मुनि का साधना-मार्ग अत्यन्त कंटकाकीर्ण होता है। उन्हें डांस तथा मच्छर काटते रहते हैं किन्तु वे उस समय आत्मलीन होकर उस परीषह को सहन करते हुए अपने अन्तरंग शत्रों-रागद्वेष, मोह-माया, आदि का हवन करते रहते हैं। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए युद्धरत मदोन्मत्त हाथी का दृष्टान्त दिया गया है । अनेक वाण हाथी के शरीर में घुसकर भी उसे शत्रविनाश के कार्य से रोक नहीं सकते हैं। . इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि हाथी की भांति अपरिमित आत्मशक्ति से संपन्न होकर मुनि इस भवसागर का सन्तरण कर सकता है। जो व्यक्ति ऐसे महामुनियों को अपमानित अथवा प्रताडित करता हैं वह अपने नखों से पर्वत खोदता हैं, दातों से लोहा चबाता है और पैरों से अग्नि को कुचलता वस्तुत: अज्ञानवश मानव मर्त्य-लोक में अनेक दुराचार करता है। किन्तु मृत्यु के समीप आने पर वह परलोक के भय से संत्रस्त होता है । अज्ञानी जीव के इस सामान्य व्यवहार का जुआरी के दृष्टान्त से समर्थन किया गया है। दाव में सब कुछ हार जाने वाले जुआरी की तरह अज्ञानी की मृत्यु अत्यन्त भयावह होती है। ____ कारणमाला अलंकार के द्वारा ग्रंथकार ने भव्य-जीव में उत्पन्न होने वाले गुणों का आलंकारिक वर्णन कर के काव्य-धर्भिता का अच्छा प्रदर्शन किया है। गाथा इस प्रकार है : सोही उज्जुभूयस्स धम्मो सुदस्य चिट्ठई ।। निव्वाणं परमं जाई घय-सित्त व पावए । अर्थात् जो सरल होता है, उसे शुद्धि प्राप्त होती है। जो शुद्र होता है, उस में धर्म रहता है जिसमें धर्म रहता है वह धृत-सिक्त अग्नि की तरह परम निर्वाण को प्राप्त होता है । ऐसे ही मुनियों को ग्रन्धकार ने धर्म-रथ का सारभि एवं धर्मरूपी आराम (उद्यान) में विचरण करने वाला बताया है । वह रूपक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy