SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डो. मिथिलेश कुमारी भिश्र १६५.. लिए तो स्पष्ट कहा गया है कि सेवा ही उनके लिए संन्यास के समतुल्य फल २ दायक हैं । शूद्र के लिए संन्यास का वर्जन है तभी तो तपलीनशम्बूक शुद्र का सिर राजा राम के द्वारा छिन्न कर दिया गया था । मनुस्मृति में बार-बार सभी आश्रमों में जाने का उल्लेख मिलता हैं यथा अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् । अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन्न्रजत्यधः ॥ 3 अर्थात् जो द्विज वेदों को न पढ़कर तथा पुत्रों की उत्पत्ति और यज्ञों का अनुष्ठान न कर (अथवा ऋषिऋण, पितृऋण, और देवऋण से उत्तीर्ण हुए बिना ) संन्यास धारण करने की इच्छा करता है वह नीच नरक गति को प्राप्त होता है । मनुस्मृति के अनुसार द्विजों के लिए तीनों ऋणों के अपाकरण के बाद ही संन्यासः का विधान है । जबकि जैन आगम ऐसा नहीं कहते । क्षत्रिय राजा नमि की प्रव्रज्या, दो युवा ब्राह्मणो का श्रमण बन जाना, हरिकेशी चाण्डाल की तपस्या आदि वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था के विपरीत हैं । जिसमें जब भी वैराग्य भाव हो वही श्रमण हो सकता है । इस प्रकार जैन श्रमणों के लिए जाति या आश्रम की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है । निवृत्ति पर ही इनका सिद्धान्त निर्भर है । जैन आगमों में 1 साधुओं के लिए पूर्ण अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का विधान किया गया है । इनका विस्तृत विवेचन उत्तराध्ययन में उपलब्ध है 1 श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति श्रम से मानी गयी है जिसके अनुसार श्रमण शब्द का मूलाधार, कायक्लेश अथवा तपस्या है जिसकी पूर्णता २२ परीषहों के. सहन करने में होती है ।" ये बाईस परीषह साधु - जीवन की कसोटी हैं । इनके विस्तृत विवेचन हेतु शोध-प्रबंध अपेक्षित है । अतः यहाँ पर मात्र उनके नाम प्रस्तुत हैं क्षुधापरीषह, तृषापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमषक परीषह अवस्त्रपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, चर्यापरीषह, वधापरीषह, याचनापरीषह अलाभपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, प्रस्वेदपरीषह, सत्कारपुरस्कारपरीषह प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, तथा दर्शनपरीषह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy