SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनेन्द्रकुमार जैन 139 ज्ञान, चारित्र व तप के शंका आदि दोषों को दूर करना (उद्योतन), बार-बार आत्मा का सम्यग्दर्शन आदि रूप में परिणत होना (उद्यमत), परीषह, आदि आने पर भी आकुलता के बिना सम्यग्दर्शन आदि धारण करना (निर्वहन) नित्य या दैनिक कार्यो को करने से सम्यग्दर्शन आदि में व्यवधान आने पर उसमें पुनः मन को लगाना (साधन), तथा दूसरे भव में भी सम्यग्दर्शन आदि को साथ ले जाना या आमरण पालन करना (निस्तरण) ही आराधना है । तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, स्व और पर के निर्णय को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। पाप का बन्ध कराने वाली क्रियाओं के त्याग को सम्यक् चारित्र तथा इंद्रिय एवं मन के नियमन को सम्यक् तप कहते हैं। भगवती आराधना में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों आराधनाओं को सम्यग्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र इन दो आराधनाओं में समाविष्ट कर दिया है। दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है किन्तु ज्ञान की आराधना करने से दर्शन की आराधना भजनीय है – होती भी है, नहीं मी होती है । तथा संयम या चारित्र की आराधना करने पर तप की आराधना नियम से होती है किन्तु तप की आराधना में चारित्र की आराधना भजनीय है ।" ऊपर कहा गया है कि श्रद्धान ( दर्शन ) की आराधना करने पर सम्यक् ज्ञान की आराधना अवश्य होती है, किन्तु यहां प्रश्न किया जाता है कि दर्शन और चारित्र की आराधना के स्थान पर ज्ञान और चारित्र इस प्रकार भेद क्यों नहीं किए गये । इस के उत्तर में विजयोदया के टीकाकार ने अपनी टीका में कहा है कि-सम्यग्ज्ञान की आराधना करने पर सम्यग्दर्शन की आराधना होती है किन्तु मिथ्याज्ञान की आराधना में दर्शन की आराधना नहीं होती इसलिए मूलग्रन्थकारने 'भयणिज्ज शब्द के प्रयोग से इसे स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञान की आराधना से दर्शन की आराधना भजनीय है ( अर्थात् होती भी है और नहीं भी होती)। अतः ज्ञान का प्राधान्य न होने के कारण ज्ञानाराधना नामक भेद नहीं किया गया। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy