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________________ डा० सागरमल जैन ____91 प्रश्नव्याकरणसूत्र का आश्रव एवं संवर के विवेचन से युक्त वह संस्करण अस्तित्व में आया है जो वर्तमान में हमें उपलब्ध है । यह प्रश्न व्याकरण का अन्तिम सस्करण जहां तक प्रश्नव्याकरण के उपर्युक्त दो प्रानीन लुप्त संस्करणों की. विषयवस्तु का प्रश्न है, उसमें से प्रथम संस्करण की विषयवस्तु अधिकांश रूप से एवं कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान में उपलब्ध ऋषिभाषित (इसिभासियाई), उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग एवं ज्ञाताधर्मकथा में समाहित है । द्वितीय निमित्तशास्त्र सम्बन्धी संस्करण की विषयवस्तु, जयपायड और प्रश्नव्याकरण के नाम से उपलव्ध अन्य निमित्तशास्त्रों के ग्रन्थों में हो सकती है । यद्यपि इस सम्बन्ध में विशेषरूप से शोध की आवश्यकता है । आशा है विद्वद्जन इस दिशा में ध्यान देगे । सन्दर्भ १-पण्हावागरणेसु अठुत्तरं पसिणसयं अठुत्तरं अपसिणसयं अठुत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग--सुवन्नेहि सद्धिं दिव्वा संवाया आघविजंतिसमवायांगसूत्र, ५४६ २-वागरणगंथाओ पभिति........... । इसिमासियाई-३१ ३-पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-उवमा, संख, इसिभासियाई, आयरियभासियाई, महावीरभासियाई, खोमगपसिणई, कोमलपसिणाई, अदागपसिणाई, अंगुठ्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई ।-स्थानांगसूत्र १०/११६ ४-से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अटूटुत्तरं पसिणसयं अठुत्तरं अपसिणसयं अठुत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्नेहिं सद्धिं दिव्वा. संवाया आद्यविजंति । ५-पण्हावागरणदसासु णं ससमय परसमय पण्णबय-पत्तेअबुद्ध-विविहत्थभासाभासियाणं अइसयगुण-उवसम–णाणप्यगार-आयरियभासियाणं वित्थरेण, वीरमहेसीहिं विविहवित्थरभासियाण' च जगहियाण जद्दागंगुट्ठ-बाहु-असि-मणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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