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________________ डा० सागरमल जैन की आस्था उस पर टिक नहीं पाती और जिनप्रवचन की अतिशयता प्रकट नहीं होती । अतः प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में परिवर्तन करने का दोहरा लाभ थाएक और अन्यतीर्थिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग किया जा सकता था और दूसरी और उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी नई सामग्री जोडकर उसकी प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता था । किन्तु जब परवर्ती आचार्यों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमि - तिक विद्याओं की उपासना में रत देखा होगा तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाला विवरण रख दिया | प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं ज्ञानविमल ने भी विषय परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार किया है। २३ 89 २४ प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी गई और उसके स्थान पर पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार रूप नवीन विषयवस्तु रख दी गई यह प्रश्न भी विचारणीय है ? अभयदेवसूरीने अपनी स्थानांग, और समयांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध नहीं है । मात्र यही नहीं, उन्होंने पांच आश्रवद्वार और पांच संत्ररद्वार वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण पर ही टीका लिखि है । अतः वर्तमान संस्करण की निम्नतम सीमा अभयदेव के काल अर्थात् ईस्वी सन् १०८० से पूर्ववर्ती होना चाहिए । पुनः अभयदेवने प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध हैं या दो श्रुतस्कन्ध हैं इस समस्या को उठाते हुए अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य का मत उद्धृत किया है - दो सुयसंघा पण्णता आसवदारा य संवरदार य- । अभयदेवने पूर्वाचार्य की मान्यता को अस्वीकार भी किया है और यह भी कहा है कि यह दो श्रुत स्कन्धों की मान्यता रूढ़ नहीं है । सम्भवतः उन्होंने अपना एक श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी मत समवायांग और नन्दी के आधार पर बनाया हो । इसका अर्थ यह भी है २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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