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अमितगतिविरचिता सावादीन्न मयाद्यान्नं किंचनाप्युपसाधितम् । त्वदीये भवने तस्य भोजनं मन्यमानया ॥४१ यदि वल्मिष्यते' दत्तं गोमयं स पतिर्मया। तदा सहिष्यते सर्व दूषणं मम रक्तधीः ॥४२ विचिन्त्येति तवादाय कवोष्णं' गोमयं नवम्। उच्छ्रनैकैकगोधूमकणं निन्धं बहुद्रवम् ॥४३ गृहाण त्वमिदं नीत्वा' तेमनं वितरै प्रभोः । इत्युक्त्वा भाजने कृत्वा सुन्दर्यास्तत्समर्पयत् ॥४४ युग्मम् आनीय तत्तया दत्तं स्तावं' स्तावमभक्षयत् । भोजनं सुन्दरं हित्वा स शूकर इवाशुचि ॥४५ किमेतवद्भुतं रागी गोमयं यदभुङ्क्त सः।
स्वस्त्रोजघनवक्त्रस्थमशुच्याद्यपि खादति ॥४६ ४२) १. भोक्ष्यति। ४३) १. ईषदुष्णम् । २. फुल्लमानम् । ३. शिथिल । ४४) १. रहसि नीत्वा । २. क देहि। ४५) १. क स्तुतिं कृत्वा । २. त्यक्त्वा । ४६) १. योनिद्वारस्थम्।
इसपर कुरंगी बोली कि तुम्हारे घरपर उसके भोजनको जानकर मैंने आज कुछ भी भोजन नहीं बनाया है ॥४१।।
___ यदि वह मेरा पति मेरे द्वारा दिये गये गोबरको खा लेगा तो मेरे विषयमें बुद्धिके आसक्त रहनेसे वह मेरे सब दोषको सह लेगा, ऐसा सोचकर वह एक-एक गेहूँके कणसे वृद्धिंगत, निन्दनीय, बहुत पतले एवं कुछ गरम ताजे गोबरको लायी और बोली कि लो इस कढ़ीको ले जाकर स्वामीके लिए दे दो; यह कहते हुए उसने उसे एक बर्तनमें रखकर सुन्दरीको दे दिया ॥४२-४४॥
सुन्दरीने उसे लाकर पतिके लिए दे दिया। तब वह बहुधान्यक सुन्दर भोजनको छोड़कर बार-बार प्रशंसा करता हुआ उसको इस प्रकार खाने लगा जिस प्रकार कि शूकर अपवित्र विष्ठाको खाता है ॥४५॥
उस विषयानुरागी ग्रामकूटने यदि गोबरको खा लिया तो इसमें कौन-सा आश्चर्य है ? कारण कि विषयी मनुष्य तो अपनी स्त्रीके योनिद्वार में स्थित घृणित पदार्थोंको भी खाया करता है ॥४६॥
४१) ब द्याक्व, धापि । ४३) अ ब तयादाय, क ड तदादायि; बकैकचणककणं । ४४) क ड तीमनं; व भोजनं कृत्वा ; इ सुन्दयाँ ; अ क ड इ सा for तत् ; ब समर्पितम् ; अ क युग्मं । ४५) अ स्तावं स भक्षयन्.... शुचिं । ४६) अ ब यदभुक्त; ब स स्त्री'; अ क 'मशुच्यद्यपि शुच्यादपि, ।
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