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धर्मपरीक्षा-५ लीलया भवनद्वारे स्थितो ऽध्यास्य चतुष्किकाम् । स पश्यन्नुल्लसत्कान्ति प्रियावदनपङ्कजम् ॥१२ क्षणमेकमसौ स्थित्वा निजगाव मनःप्रियाम् । कुरङ्गि देहि मे क्षिप्रं भोजनं किं विलम्बसे ॥१३ सा कृत्वा भृकुटी भीमा यमस्येव धनुलंताम् । अवादीत्कुटिलस्वान्ता कान्तं पुरुषनाशिनी ॥१४ स्वमातुभवने तस्या भुइक्ष्व दुष्टमते व्रज। यस्या निवेदिता वार्ता पूर्वां पालयता स्थितिम् ॥१५ सुन्दर्याः स्वयमाख्याय वाती भत्रै चुकोप सा। योजयन्ति न कं दोषं जिते भर्तरि योषितः ॥१६ कृत्वा दोषं स्वयं दुष्टा पत्ये कुप्यति कामिनी।
पूर्वमेव स्वभावेन स्वदोषविनिवृत्तये ॥१७ १२) १. आश्रितस्य । १३) १. मह्यम् । १४) १. भर्तारं प्रति ।
वह बहुधान्यक क्रीड़ापूर्वक जाकर कुरंगीके भवनके द्वारपर स्थित हो गया। फिर वह चौके ( रसोईघर) में जाकर कान्तिमान् प्रियाके मुखरूप कमलको देखता हुआ क्षणभरके लिए वहाँ स्थित हो गया और मनको प्रिय लगनेवाली पत्नीसे बोला कि हे कुरंगी ! मुझे जल्दी भोजन दे, देर क्यों करती है ? ॥१२-१३॥
____ इस पर मनमें कुटिल अभिप्रायको रखनेवाली वह पुरुषोंकी घातक कुरंगी यमराजकी धनुर्लता (धनुषरूप बेल ) के समान भृकुटीको भयानक करके पतिसे बोली कि हे दुर्बुद्धि ! अपनी उस माँके घरपर जा करके भोजन कर जिसके पास स्थितिका पालन करनेवाले तूने पहले आनेका समाचार भेजा है ॥१४-१५॥
___इस प्रकार वह सुन्दरीसे स्वयं ही उसके आने की बात कह करके पतिके ऊपर क्रोधित हुई। ठीक है-पति के अपने अधीन हो जानेपर स्त्रियाँ कौन-कौनसे दोषका आयोजन नहीं करती हैं ? अर्थात् वे पति को वशमें करके उसके ऊपर अनेक दोषोंका आरोपण किया करती हैं ॥१६॥
दुष्ट कामुकी स्त्री स्वयं ही अपराध करके अपने दोषको दूर करनेके लिए स्वभावसे पहले ही पतिके ऊपर क्रोध किया करती है ।।१७।।
१२) इकान्ति । १४) अ धनुगता; ब न्यवादीत्; क परुषभाषिणी । १५) ब भुवने ; ड सर्वां for पूर्वां ; अ पालयिता। १७) अ पत्यै।
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