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________________ [५] ग्रामकूटो ऽथ सोत्कण्ठो मन्मथव्यथिताशयः। आगत्य तरसा दिष्टया कुरगीभवनं गतः ॥१ बलाहकैरिव व्योम पौरैरिव पुरोत्तमम् । धनधान्यादिभि नमीक्षमाणो ऽपि मन्दिरम् ॥२ कुरङ्गीमुखराजीवदर्शनाकुलमानसः । अद्राक्षीदेष मूढात्मा चक्रवतिगृहाधिकम् ॥३ सो ऽमन्यत प्रियं यन्मे तदेषा कुरुते प्रिया। न पुनस्तत्प्रिर्य सर्व यदेषां कुरुते न मे ॥४ न किंचनेदमाश्चयं यन्नेक्षन्ते परं नराः। नात्मानमपि पश्यन्ति रागान्धीकृतलोचनाः ॥५ १) १. क कामपीडितचेताः २. आनन्देन । २) १. क बकपङ्क्तिभिः ; हीनं रहितमिव । ३) १. मुखकमल । २. बहुधान्यः एवं मन्यते । ४) १. कुरङ्गी । २. सुन्दरी [?] ! तत्पश्चात् वह बहुधान्यक ग्रामकूट हृदयमें कामकी व्यथासे पीड़ित होकर उत्सुकता पूर्वक आया और सहर्ष वेगसे कुरंगीके घरपर जा पहुँचा ॥१॥ वह मूर्ख मेघोंसे रहित आकाश एवं पुरवासीजनोंसे रहित उत्तम नगरके समान धन-धान्यादिसे रहित कुरंगीके उस घरको देखता हुआ भी चूंकि मनमें उसके मुखरूप कमलके देखने में अतिशय व्याकुल था; अत एव उसे वह घर चक्रवर्तीके घरसे भी अधिक सम्पन्न दिखा ॥२-३॥ वह यह समझता था कि मुझको जो अभीष्ट है उसे यह मेरी प्रियतमा करती है । तथा यह मेरे लिए जो कुछ भी करती नहीं है वह सब उसके लिए प्रिय नहीं है ॥४॥ जिनके नेत्र रागसे अन्धे हो रहे हैं वे मनुष्य यदि किसी दूसरेको नहीं देखते हैं तो यह कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि, वे तो अपने आपको भी नहीं देखते हैं-अपने हिताहितको भी नहीं जानते हैं ॥५॥ १) इ ऽप्यनुत्कण्ठो; ब व्यषिताशयः; क हृष्टया for दिष्टया । ३) अ इ गृहादिकं । ४) ड इ स मन्यते; ब क तन्मे; क यदेषा for तदेषा; अ ड इमम, ब खलु for न मे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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