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तमालोक्यासनोत्तीर्णमथावादीद् द्विजाग्रणीः । तार्णिकाः काष्ठका दृष्टा न मया रत्नमण्डिताः ॥ १ परप्रेष्यकरा मर्त्या दिव्यालङ्कारराजिताः । वहन्तस्तृणकाष्ठानि दृश्यन्ते न कदाचन ॥२
१. क परकार्यकराः ; कार्य ।
१. क मनोवेगः । २. क कथयन्ते; जानन्ति । ३. अज्ञानिनः क निर्बुद्धयः । ४. क अन्यम् ; पण । [ मराठी ? ]
४ ) १. प्रतीति कुर्मः ; क अङ्गीकर्तुः ।
५ ) १. पण । [ मराठी ? ]
से
प्राह भारताद्येषु पुराणेषु सहस्रशः । श्रूयते न प्रपद्यन्ते भवन्तो विधियैः परम् ॥३ यदि रामायणे दृष्टा भारते वा त्वयेदृशाः । प्रत्येष्यामस्तदा ब्रूहि द्विजेनेत्युदिते ऽवदत् ॥४ ब्रवीमि केवलं ' विप्रा ब्रुवाणो ऽत्र बिभेम्यहम् । यतो न दृश्यते को ऽपि युष्मन्मध्ये विचारकः ॥५
तत्पश्चात् मनोवेगको आसन से उतरा हुआ देखकर ब्राह्मणोंमें अग्रगण्य वह ब्राह्मण उससे बोला कि मैंने रत्नोंसे अलंकृत होकर घास और लकड़ियोंके बेचनेवाले नहीं देखे हैं । स्वर्गीय अलंकारोंसे सुशोभित मनुष्य दूसरोंकी सेवा करते हुए अथवा तृणकाष्ठोंको ढोते हुए कभी भी नहीं देखे जाते हैं ॥ १-२ ॥
यह सुनकर मनोवेग बोला कि महाभारत आदि पुराणों में ऐसे हजारों मनुष्य सुने जाते हैं । परन्तु आप जैसे लोग उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं ||३||
इसपर वह ब्राह्मण विद्वान् बोला कि यदि तुमने रामायण या महाभारत में ऐसे मनुष्य देखे हैं तो बतलाओ, हम उन्हें स्वीकार करेंगे। इस प्रकार उक्त ब्राह्मणके कहनेपर मनोवेग बोला कि हे विप्र ! मैं केवल बतला तो दूँ, परन्तु कहते हुए मैं यहाँ डरता हूँ । कारण इसका यह है कि आप लोगों में कोई विचार करनेवाला नहीं दिखता है | ४-५॥
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१) ब क 'मथ वादी । ३) ड इ ज्ञायन्ते न; ब भवन्ति;
२) अ ब इ रत्नालङ्कार ; अ ब ड इ विधयः ।
५)
वहन्ति तृ ' ; अ ब ड इ विप्र ।
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इन दृश्यन्ते कदाचन ।
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