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________________ ४८ अमितगतिविरचिता 'प्रेक्षकैर्वेष्टितौ लोभ्रंमन्तौ तौ समन्ततः । sya महाराव मंक्षिकानिवहैरिव ॥५५ केचिदूचुर्नरास्तत्र पश्यताहो सभूषणौ । वहृतस्तृणदारूणि वराकाराविमौ कथम् ॥५६ जजल्पुरपरे स्वानि विक्रीयाभरणानि किम् । भूरिमौल्यानि सौख्येन तिष्ठतो न नराविमौ ॥५७ अन्ये ऽवोचन्नहो न स्तस्तार्णदारविकाविमौ । देव विद्याधरावेतौ कुतो ऽपि भ्रमतः स्फुटम् ॥५८ बभाषिरे परे भद्राः किं कृत्यं परचिन्तया । परचिन्ताप्रसक्तानां पापतो न परं फलम् ॥५९ तावालोक्य स्फुरत्कान्तो क्षुभ्यन्ति स्म पुराङ्गनाः । निरस्तापरकर्माणो मनोभववशीकृताः ॥६० एको मनोनिवासीति प्रसिद्धिविनिवृत्तये । जातः कामो' द्विधा नूनमित्यभाषन्त काश्चन ॥६१ ५५) १. क अवलोकनं कुर्वद्भिः । ६१) १. क कामदेवः । उस समय इस प्रकारके वेषमें सब घूमते हुए उन दोनोंको दर्शकजनोंने इस प्रकार से घेर लिया जिस प्रकार कि मानो महान् शब्दको करनेवाली मक्खियोंके समूहोंने गुड़ दो ढेरोंको ही घेर लिया हो ॥ ५५ ॥ उनको इस प्रकारसे देखकर वहाँ कुछ लोगोंने कहा कि देखो ! आश्चर्य है कि भूषणोंसे विभूषित होकर उत्तम आकारको धारण करनेवाले ये दोनों बेचारे घास और लकड़ियोंके भारको कैसे धारण करते हैं ? ॥ ५६ ॥ दूसरे कुछ मनुष्य बोले कि ये दोनों मनुष्य अपने बहुमूल्य भूषणोंको बेचकर सुखसे क्यों नहीं स्थित होते ? ॥५७॥ अन्य कुछ मनुष्य बोले कि विचार करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों घास और लकड़ी बेचनेवाले नहीं हैं, किन्तु ये दोनों देव अथवा विद्याधर हैं जो कि स्पष्टतः किसी कारणसे घूम रहे हैं ॥५८॥ दूसरे कुछ भद्र पुरुष बोले कि हमें दूसरोंकी चिन्तासे क्या करना है, क्योंकि, जो दूसरोंकी चिन्तामें आसक्त रहते हैं उन्हें पापके सिवा दूसरा कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता है ॥ ५९॥ अतिशय कान्तिशाली उन दोनोंको देखकर कामके वशीभूत हुईं नगरकी स्त्रियाँ अन्य कामोंको छोड़कर क्षोभको प्राप्त हुई ||६०|| कुछ स्त्रियाँ बोलीं कि कामदेव एक है यह जो प्रसिद्धि है उसको नष्ट करनेके लिए ५५) ब 'निकरैरिव । ५८) इ तृण for तार्ण; ड वि for sपि । ६१) क ड प्रसिद्धिविनिवर्तये, इ प्रसिद्धि विनिवर्तये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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