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धर्मपरीक्षा-२ भव्यत्वमस्ति जिन नास्त्यथ तस्य पूतं
तत्त्वप्रपञ्चरचनास्तदृते निरर्थाः । व्यर्थीभवन्ति सकलाः खलु कंकडूके
मुद्गे विपाकविधयो विनिवेश्यमानाः ॥८९ पृष्ट वेति तत्र विरते सति खेटपुत्रे
भाषानधा यतिपतेरुदपादि हृद्या। मिथ्यात्वदोषमपहास्यति भद्र सद्यो
नीत्वा स पुष्पनगरं प्रतिबोध्यमानः ॥९० मिथ्यात्वशल्यमवगाह्य मनःप्रविष्टं
दृष्टान्तहेतुनिवहैरभिपाटयास्य । संदंशकैरिव शरीरगतं सुबुद्धे
काण्डादि दुःसहनिरन्तरकष्टकारि ॥९१ प्रत्यक्षतः परमतानि विलोकमानः
पूर्वापरादिबहुदूषणदूषितानि । मिथ्यान्धकारमपहाय से भूरिदोषं ।
ज्ञानप्रकाशमुपयास्यति तत्र सद्यः ॥९२ ८९) १. मित्रस्य । २. भव्यत्वं विना । ३. भवन्ति । ९०) १. मौनाश्रिते । २. उत्पन्ना । ३. क त्यजति । ४. तव मित्रः । ५. क पट्टननगरं। ९१) १. क व्याप्यमान । २. क निःकासय । ३. सांढसि वा । ४. क मालि; शल्य-बाण। ९२) १. त्यक्त्वा । २. क पवनवेगः । ३. पाटलिपुरे; क पट्टणनगरे ।
सिवाय अन्य कोई विवेकको उत्पन्न करनेवाला नहीं है, संसारके अतिरिक्त अन्य किसीका निषेध करना योग्य नहीं है, तथा मुक्तिके बिना और कोई भी वस्तु मनुष्योंके द्वारा प्रार्थनीय नहीं है । ८८॥
___ हे सर्वज्ञ देव ! उसके पवित्र भव्यपना है अथवा नहीं है ? कारण कि उसके विना वस्तुस्वरूपकी प्ररूपणा व्यर्थ होती है । ठीक है-कंकड़क (कांकटुक) मूंगके (न सीझने योग्य उड़दके ) होनेपर उसके पकानेके लिए की जानेवाली सब ही विधियाँ व्यर्थ ठहरती हैं ॥८९।।
इस प्रकार पूछकर उस विद्याधरकुमार (मनोवेग) के चुप हो जानेपर यतिश्रेष्ठकी निष्पाप एवं मनोहर भाषा उत्पन्न हुई-हे भद्र ! पुष्पनगर (पटना) ले जाकर प्रतिबोधित करनेपर वह शीघ्र ही उस मिथ्यात्वके दोषको छोड़ देगा ।।९।।
हे सुबुद्धे ! तुम उसके मनमें स्थान पाकर प्रविष्ट हुए उस मिथ्यात्वरूप काँटेको अनेक दृष्टान्त एवं युक्तियों के द्वारा इस प्रकारसे निकाल दो जिस प्रकार कि शरीरके भीतर प्रविष्ट होकर निरन्तर दुःसह दुःखको देनेवाले काँटे आदिको संडासियोंके द्वारा निकाला जाता
वह वहाँ पूर्वापर आदि अनेक दोषोंसे दूषित अन्य मतोंको प्रत्यक्ष देखकर शीघ्र ही ८९) ब रचना....निरर्था; इ कंकटूके । ९०) अ ब इ जिनपते । ९१) अ 'रुत्पादयास्य, इ 'रुत्पाटयास्य ।
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