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धर्मपरीक्षा-२
भिन्न प्रकृतिका भिन्ना जन्तोर्ये ऽत्रैव बान्धवाः । ते ऽमुत्रे न कथं सन्ति निजकर्मवशीकृताः ॥५९ नात्मनः किंचनात्मीयं निरस्यात्मानमञ्जसा। अयं निजः परश्चायं कल्पना मोहकल्पिता ॥६० आत्मनः सह देहेन नैकत्वं यस्य विद्यते। बहिर्भूतैः कथं तस्य' मित्रपुत्राङ्गनादिभिः ॥६१ कार्यमुद्दिश्य निःशेषा भजन्त्यत्र जने जनाः। न वाचमपि यच्छन्ति स्वकीयां कार्यजिताः॥६२ न कोऽपि कुरुते स्नेहं विना स्वार्थेन निश्चितम् । क्षीरक्षये विमुञ्चन्ति मातरं किं न तर्णकाः ॥६३ दुःखदं सुखदं मत्वा स्थावरं गत्वरं' जनाः।
बतानात्मीयेमात्मीयं कुर्वते पापसंग्रहम् ॥६४ ५९) १. क भिन्नस्वभावाः । २. परलोके । ३. केन प्रकारेण । ६०) १. विहाय । २. कल्पकल्पने। ६१) १. आत्मनः; क नरस्य । ६२) १. क विचार्य। ६३) १. वत्सकाः। ६४) १. अनित्यम् । २. क अहितम् ।
भिन्न-भिन्न स्वभाववाले जो बन्धुजन इसी भव में प्राणीसे भिन्न हैं वे अपने-अपने कर्मके आधीन होकर भला परभवमें कैसे भिन्न नहीं होंगे ? भिन्न होंगे ही ॥५९।।
वास्तवमें अपनी आत्माको छोड़कर और कुछ भी अपना निजी नहीं है। यह अपना है और यह दूसरा है, यह केवल मोहके द्वारा कोरी कल्पना की जाती है ॥६॥
जिस आत्माकी शरीरके साथ भी एकता नहीं है, उसकी क्या मित्र, पुत्र और स्त्री आदि बाहरी पदार्थोंके साथ कभी एकता हो सकती है ? नहीं हो सकती है ॥६१॥
समस्त जन अपने कार्यके उद्देश्यसे ही यहाँ मनुष्यकी सेवा करते हैं। कार्यसे रहित होनेपर वे अपने वचनको भी नहीं देते हैं-बात भी नहीं करते हैं ॥६२॥
स्वार्थ के बिना निश्चयसे कोई भी स्नेह नहीं करता है। ठीक ही है-दूधके नष्ट हो जानेपर क्या नवजात बछड़े भी माँ को ( गायको) नहीं छोड़ देते हैं ? छोड़ ही देते हैं ॥६३।।
यह खेदकी बात है कि प्राणी दुखदायक वस्तुको सुखदायक, अस्थिरको स्थिर और परको स्वकीय मानकर यों ही पापका संचय करते हैं ॥६४।।
५९) अ जन्तोरत्रैव, क ड जन्तोत्रिव, इ जन्तोरत्रैव । ६०) ड कल्पिताः । ६१) ब भिद्यते for विद्यते । ६२) क ड स्वकीया वजिता ।
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