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________________ [प्रशस्तिः ] सिद्धान्तपायोनिधिपारगामी श्रीवीरसेनो ऽजनि सरिवर्यः। श्रीमाथुराणां यमिनां वरिष्ठः कषायविध्वंसविधौ पटिष्ठः ॥१ ध्वस्ताशेषध्वान्तवृत्तिर्मनस्वी तस्मात्सूरिर्देवसेनो ऽजनिष्ट । लोकोद्योती पूर्वशैलादिवार्कः शिष्टाभीष्टः स्थेयसो ऽपास्तदोषः ।।२ भासिताखिलपदार्थसमूहो निर्मलो ऽमितगतिर्गणनाथः। वासरो दिनमणेरिव तस्माज्जायते स्म कमलाकरबोधी ॥३ नेमिषेणगणनायकस्ततः पावनं वृषमधिष्ठितो विभुः। पार्वतीपतिरिवास्तमन्मथो योगगोपनपरो गणाचितः ॥४ आगमरूप समुद्र के पारगामी, माथुर संघके मुनिजनोंमें श्रेष्ठ एवं क्रोधादिक कषायोंके नष्ट करने में अतिशय पट ऐसे श्री वीरसेन नामके एक श्रेष्ठ आचार्य हए ॥२॥ उनके पश्चात् समस्त अज्ञानरूप अन्धकारकी स्थितिको नष्ट करनेवाले देवसेन सरि उनसे इस प्रकार आविर्भूत हुए जिस प्रकार कि स्थिर पूर्व शैलसे-उदयाचलसे-सूर्य आविर्भत होता है। उक्त सूर्य यदि समस्त बाह्य अन्धकारको नष्ट करता है तो वे देवसेन सरि प्रोणियोंके अन्तःकरणमें स्थित अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट करनेवाले थे, सूर्य यदि बाह्य तेजसे परिपूर्ण होता है तो वे तपके प्रखर तेजसे संयुक्त थे, जिस प्रकार लोकको प्रकाश सूर्य दिया करता है उसी प्रकार वे भी जनोंको प्रकाश-ज्ञान-देते थे, सूर्य जहाँ दोषाको-रात्रिको नष्ट करनेके कारण अपास्तदोष कहा जाता है वहाँ वे समस्त दोषोंको नष्ट कर देने के कारण अपास्तदोष विख्यात थे, तथा जैसे सूर्य शिष्ट-प्रतिष्ठित व लोगोंको प्रिय है वैसे ही वे मी शिष्ट-प्रतिष्ठित सत्पुरुष व लोगोंको प्रिय थे; इस प्रकार वे सर्वथा सूर्यकी समानताको प्राप्त थे ।।२।। उक्त देवसेन सूरिसे उनके शिष्यभूत अमितगति आचार्य (प्रथम ) इस प्रकारसे प्रादुभूत हुए जिस प्रकार कि सूर्यसे दिन प्रादुर्भूत होता है-जिस प्रकार दिन समस्त पदार्थों के समूहको प्रकट दिखलाता है उसी प्रकार वे अमितगति आचार्य भी अपने निर्मल ज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकट करते थे, दिन यदि बाह्य मलसे रहित होता है तो वे पापमलसे रहित थे, तथा दिन जहाँ कमलसमूहको विकसित किया करता है वहाँ वे अपने सदुपदेशके द्वारा समस्त भव्य जीवरूप कमलसमूहको प्रफुल्लित करते थे ।।३।। ___अमितगतिसे उनके शिष्यभूत नेमिषेण आचार्य शंकरके समान प्रादुर्भूत हुए-जिस प्रकार शंकर ( महादेव ) प्रमथादि गोंके नायक हैं उसी प्रकार वे नेमिषेण अपने मुनिसंघके नायक थे, शंकर यदि पवित्र वृष-बैल-के ऊपर अधिष्ठित हैं तो वे पवित्र वृष-धर्म-के ऊपर अधिष्ठित थे, शंकरने यदि अपने तीसरे नेत्रसे प्रादुभूत अग्निके द्वारा कामदेवको नष्ट २) इ महस्वी....जनिष्टः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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