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अमितगतिविरचिता मिथ्यात्वग्रन्थिरताय दुर्भेद्यस्तस्य सर्वथा। अनेन वचसाभेदि वज्रणेव महीधरः ॥८५ ऊचे पवनवेगो ऽथ भिन्नमिथ्यात्वपर्वतः । हा हारितं मया जन्म स्वकीयं दुष्टबुद्धिना ॥८६ त्यक्त्वा' जिनवचोरत्नं हा मया मन्दमेधसा। गृहीतो ऽन्यवचोलोष्टो निराकृत्य वचस्तव ॥८७ त्वया दत्तं मया पीतं न हो जिनवचोमृतम् । सकलं पश्यताभ्रान्तं' मिथ्यात्वविषपायिना ॥८८ निवार्यमाणेन मया त्वया सदा निषेवितं जन्मजरान्तकप्रदम् । दुरन्तमिथ्यात्वविषं महाभ्रमं विमुच्य सम्यक्त्वसुधामदूषणाम् ॥८९ त्वमेव बन्धुर्जनकस्त्वमेव त्वमेव मे मित्र गुरुः प्रियंकरः।।
पतंस्त्वया येन भवान्धकूपके धृतो निबध्योत्तमवाक्यरश्मिभिः ॥९० ८५) १. शीघ्रण । २. पवनवेगस्य । ८६) १. इति खेदे । ८७) १. अवगण्य । ८८) १. विपरीतम् । ९०) १. पतन् सन्।
मनोवेगके इस उपदेशके द्वारा उसके मित्र पवनवेगकी दुर्भेद मिथ्यात्वरूप गाँठ सर्वथा इस प्रकार शीघ्र नष्ट हो गयी जिस प्रकार कि वज्रके द्वारा पर्वत शीघ्र नष्ट हो जाया करता है।।८५॥
तत्पश्चात् जिसका मिथ्यात्वरूप पर्वत विघटित हो चुका था ऐसा वह पवनवेग मनोवेगसे बोला कि मुझे इस बातका खेद है कि मैंने दुर्बुद्धि (अज्ञानता) के वश होकर अपने जन्मको-अब तकके जीवनकालको-व्यर्थ ही नष्ट कर दिया ।।८६।।
दुख है कि मुझ-जैसे मन्द बुद्धिने तुम्हारे वचनका निरादर करते हुए जिन भगवान्के वचनरूप रत्नको-उनके द्वारा उपदिष्ट यथार्थ वस्तुस्वरूपको छोड़कर दूसरोंके वचनरूप ढेलेको ग्रहण किया ॥८॥
मिथ्यात्वरूप विषके पानसे सब ही वस्तुस्वरूपको विपरीत देखते हुए मैंने तुम्हारे द्वारा दिये गये जिनवचनरूप अमृतका पान नहीं किया ॥८८॥
तुम्हारे द्वारा निरन्तर रोके जानेपर भी मैंने निर्दोष सम्यग्दर्शनरूप अमृतको छोड़कर दुर्विनाश उप्स मिथ्यादर्शनरूप विषका सेवन किया जो कि महामोहको उत्पन्न करके जन्म, जरा व मरणको प्रदान करनेवाला है ।।८।।
हे मित्र! तुमने चूँकि मुझे उत्तम वचनोंरूप किरणोंके द्वारा प्रबोधित करके संसाररूप ८५) अ ब क दुर्भेदस्तस्य। ८६) अ क वेगो ऽतो, ब वेगो ऽपि । ८८) इ न जिनेन्द्र वचो ; अ सकलः । ९०) ब क न्धकूपे ; अ निबोध्योत्तम ।
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