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________________ २८८ अमितगतिविरचिता सर्वशन्यत्वनैरात्म्यक्षणिकत्वानि भाषते । यः प्रत्यक्षविरुद्धानि तस्य ज्ञानं कुतस्तनम् ॥७३ कल्पिते सर्वशून्यत्वे' यत्र बुद्धो न विद्यते । बन्धमोक्षादितत्त्वानां कुतस्तत्र व्यवस्थितिः ॥७४ स्वर्गापवर्गसौख्यादिभागिनः स्फुटमात्मनः । अभावे' सकलं वृत्तं क्रियमाणमनर्थकम् ॥७५ क्षणिके हन्त हन्तव्यदातदेयादयो ऽखिलाः। भावा यत्र विरुध्यन्ते तेद्गृह्णन्ति न धोधनाः ॥७६ प्रमाणबाधितः पक्षः सर्वो यस्येति सर्वथा। सार्वज्यं विद्यते तस्य न बुद्धस्य दुरात्मनः ॥७७ ७४) १. सति । ७५) १. सति। ७६) १. सति । २. क्षणिकम् । जो बुद्ध प्रत्यक्षमें ही विपरीत प्रतीत होनेवाली सर्वशून्यता, आत्माके अभाव और सर्व पदार्थोंकी क्षणनश्वरताका निरूपण करता है उसके ज्ञान-समीचीन बोध-कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है ? ॥७३।। कारण यह कि उक्त प्रकारसे सर्वशून्यताकी कल्पना करनेपर-जगतमें कुछ भी वास्तविक नहीं है, यह जो भी कुछ दृष्टिगोचर होता है वह अविद्याके कारण सत् प्रतीत होता है-जो वस्तुतः स्वप्नमें देखी गयी वस्तुओंके समान भ्रान्तिसे परिपूर्ण है-ऐसा स्वीकार करनेपर जहाँ स्वयं उसके उपदेष्टा बुद्धका ही अस्तित्व नहीं रह सकता है वहाँ बन्ध और मोक्ष आदि तत्त्वोंकी व्यवस्था भला कहाँसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है ।।७४|| इसी प्रकार स्वर्गसुख और मोक्ष सुख आदिके भोक्ता जीवके अभाव में-उसका सद्भाव न माननेपर-यह सब किया जानेवाला व्यवहार व्यर्थ ही सिद्ध होगा ।।७।। जिस क्षणिकत्वके मानने में घातक व मारे जानेवाले प्राणी तथा दाता और देने योग्य वस्तु, इत्यादि सब ही पदार्थ विरोधको प्राप्त होते हैं उस क्षणिक पक्षको विचारशील विद्वान् कभी स्वीकार नहीं करते हैं। अभिप्राय यह है कि वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेपर हिंस्य और हिंसक तथा की जानेवाली हिंसाके फलभोक्ता आदिकी चूंकि कुछ भी व्यवस्था नहीं बनती है, अतएव वह ग्राह्य नहीं हो सकता है ।।६।। ___इस प्रकार जिस बुद्धका सब ही पक्ष प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित है उस दुरात्मा बुद्धके सवंज्ञपना नहीं रह सकता है ।।७७।। ७६) अदेयास्ततो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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