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________________ २८४ अमितगतिविरचिता आत्मा प्रवर्तमानो ऽपि यत्र तत्र न बध्यते । बन्धबुद्धिमकुर्वाणो नेदं वचनमञ्चितम् ॥५१ कथं निर्बुद्धिको' जीवो यत्र तत्र प्रवर्तते । प्रवृत्तिनं मया दृष्टा पर्वतानां कदाचन ॥५२ मृत्यु बुद्धिमकुर्वाणो वर्तमानो महाविषे । जायते तरसा किं न प्राणी प्राणविवर्जितः ॥५३ यद्यात्मा सर्वथा शुद्धो ध्यानाभ्यासेन किं तदा । शुद्धे प्रवर्तते को ऽपि शोधनाय न काञ्चने ॥५४ नात्मनः साध्यते शुद्धिर्ज्ञानेनैवं कदाचन । न भैषज्यावबोधेन व्याधिः क्वापि निहन्यते ॥१५ ध्यानं श्वासनिरोधेन दुधियः साधयन्ति ये । आकाश कुसुमैर्नूनं शेखरं रचयन्ति ते ॥५६ ५२) १. अभिप्राय रहितः । ५३) १. सेव्यमानः । ५५) १. केवलेन । २. ज्ञातेन । जीव जहाँ-तहाँ प्रवृत्ति करता हुआ भी बन्धबुद्धिसे रहित होने के कारण कर्म से सम्बद्ध नहीं होता है, यह जो कहा जाता है वह योग्य नहीं है । इसका कारण यह है कि यदि वह बुद्धिसे विहीन है तो फिर वह जहाँ-तहाँ प्रवृत्त ही कैसे हो सकता है ? नहीं प्रवृत्त हो सकता है, क्योंकि, बुद्धिविहीन पर्वतोंकी मैंने - किसीने भी- कभी प्रवृत्ति ( गमनागमनादि ) नहीं देखी है ।।५१-५२।। मृत्युका विचार न करके यदि कोई प्राणी भयानक विषके सेवनमें प्रवृत्त होता है तो क्या वह शीघ्र ही प्राणोंसे रहित नहीं हो जाता है ? अवश्य हो जाता है ॥५३॥ आत्मा सर्वथा शुद्ध है तो फिर ध्यानके अभ्याससे उसे क्या प्रयोजन रहता है ? कुछ भी नहीं - वह निरर्थक ही सिद्ध होता है । कारण कि कोई भी बुद्धिमान् शुद्ध सुवर्णके संशोधन में प्रवृत्त नहीं होता है ॥ ५४ ॥ Share ज्ञानमात्र से ही कभी आत्माकी शुद्धि नहीं की जा सकती है। ठीक है, क्योंकि, औषध ज्ञान मात्र से ही कहीं रोगको नष्ट नहीं किया जाता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार औषधको जानकर उसका सेवन करनेसे रोग नष्ट किया जाता है उसी प्रकार आत्माके स्वरूपको जानकर तपश्चरणादिके द्वारा उसके संसारपरिभ्रमणरूप रोगको नष्ट किया जाता है ॥५५॥ जो अज्ञानी जन श्वासके निरोधसे - प्राणायामादिसे - ध्यानको सिद्ध करते हैं वे निश्चयसे आकाशफूलोंके द्वारा सिरकी मालाको रचते हैं ||५६ || Jain Education International O ५१) ढ यत्र यत्र । ५२ ) इ कथंचन । ५५ ) ब ज्यावघोषेण... व्याधिः कोऽपि । ५६ ) अ ध्यानं श्वासां । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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